शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

अटकी पड़ीं थीं क्रांतियां क़ब्ज़ की तरह..

कविता

रेखाकृति: संजय ग्रोवर

गड़ढा खोदना क्रांति है
उसमें गिर जाना क्रांति है
झाड़कर निकल आना क्रांति है
निकलकर खिखियाना क्रांति है

किसीको पीछे से चपत मारकर भाग जाना क्रांति है
चपत मारकर खड़े रहना क्रांति है
और ये सारी क्रांतियां पकड़ाई में आ जाएं तो
ख़ुदको चपतियाना शुरु कर देना क्रांति है

और कुछ नहीं तो
बहेलियों की सहेलियां बन जाना क्रांति है
बहेलिएं बताएंगे कि कोयल को जाल से कैसे बचना चाहिए

यार एक बार क्रांति तो करनी है
कब से ड्यू है मुझपर
अच्छा सुन
अभी पिछले दिनों जो क्रांति चल रही थी
उसका क्या हुआ !?
पता नहीं यार
वैसे कुछ लोग कह रहे हैं कि हो गयी
हो गयी तो तेरा काम तो हो गया
तू तो शामिल था न उसमें
अब मैं रह गया यार

क्रांति की होम डिलीवरी नहीं होती क्या ?
होती तो होगी पर पहचानेंगे कैसे!
पहले तो कभी देखी नहीं
मुझे तो यह भी नहीं पता कि होने के बाद करते क्या हैं इसका!
तो कर क्यों रहे हो?
अरे! बाक़ी सब जो कर रहे हैं वो पागल हैं!

भेड़ियों के भी दिल ऐसे पिघले जंगल में
कि उन्होंने भेड़ों की ख़ातिर झंडे उठा लिए
कुछ भेड़ें तो भावुक हो गयीं
और कुछके पेटों में ज़मानों से अटकी पड़ीं थीं क्रांतियां
क़ब्ज़ की तरह
उन्हें भी लगा अच्छा मौक़ा है
बोलो, ज़ोर लगाके हईशा

क़िताबें आने वाली हैं जिनमें
जीसस को सूली चढ़ाने वाले
एक-एक क्रांतिकारी का
जीवन परिचय होगा बातस्वीर
वक्त आ गया है कि
कबीर को पत्थर मारनेवाले
हर जांबांज़ पर बनेंगे वृत्तचित्र

इस बार निकाल ही देनी हैं
अटकी हुई सारी क्रांतियां

ऐसी मचा दो क्रांति इस बार
कि लोग भूल जाएं
क्रांति करने वाले, पेलने वाले, झेलने वाले और खेलने वाले में
क्या फ़र्क होता है


-संजय ग्रोवर

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