शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

पैरोडी 

(बतर्ज़ इंसान....)



उस्ताद का जल्लाद से हो भाईचारा


यही ईमान हमारा, यही ईमान हमारा

नयी ठगत में हुआ पुराना छोटा-मोटा घिस्सा




यही है मेरिट हमें मिले वही मोटावाला हिस्सा



साल हज़ारों गए न भरता पेट हमारा


न भरता पेट हमारा.....


यही ईमान हमारा, यही ईमान हमारा



चेहरे और मुखौटे में कोई फ़र्क़ नहीं रह जाए


मन में रक्खे फ़र्क़ न कोई ऊपर से दिखलाए



फिर देखो पलटी मारेगा यह समय दोबारा


यह समय दोबारा......


यही ईमान हमारा, यही ईमान हमारा



हरेक भ्रष्ट से कहो कि ख़ुदको सच्चा कहके पुकारे


सब कुछ करके बुरा भी ख़ुदको अच्छा कहके पुकारे


और बच्चे-बच्चे में ठूंसो तुम ये संस्कारा


ये संस्कारा.....


यही ईमान हमारा, यही ईमान हमारा








उस्ताद का जल्लाद से हो भाईचारा


यही ईमान हमारा, यही ईमान हमारा


सोमवार, 10 सितंबर 2012

किसीने चूहा छोड़ा उनका...


ग़ज़ल

ज़्यादा उनकी, थोड़ा उनका
घास भी उनकी, घोड़ा उनका

किसीने बिल्ली पकड़ी उनकी
किसीने चूहा छोड़ा उनका

टांगे ही बेकार अगर थीं
घुटना काहे तोड़ा उनका!

चेहरा अपना बचाके रखना
तुमने दिल है तोड़ा उनका

अभी बना दें, अभी हटा दें
राहें उनकी, रोड़ा उनका

अलग़-अलग़ भी वही हुए हैं
साथ-साथ भी जोड़ा उनका

-संजय ग्रोवर


शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

बेहतर होता कि ये आत्ममुग्ध होते


व्यंग्य


किसीने सच ही कहा है कि आत्ममुग्धता भी अजीब बीमारी है। आप पांच सौ आत्ममुग्धों को एक साथ बैठा दीजिए, वे ख़ुदको सामाजिक समझने लगेंगे। साथ बैठना आत्ममुग्धों की  मजबूरी है क्योंकि आत्ममुग्धता अकेले में संभव ही नहीं है, उसके लिए दूसरा चाहिए, समाज चाहिए। अकेले में आदमी ख़ुदसे अपनी तारीफ़ करेगा तो थोड़ी ही देर में अहसास होगा कि यार मामला कुछ गड़बड़ है। जब तक दूसरा तारीफ़ न करे अहंकार की खुजली मिटती ही नहीं। धरमा जी बरमा जी से कहते हैं कि तुम बहुत सामाजिक हो और बरमा जी धरमा जी से। तत्पश्चात दोनों मुग्धा नायक मर्दाना ढंग से इठलाते हुए घर को प्रस्थान करते हैं।  

इस सामाजिक आत्ममुग्धता का चरम देखना हो तो हिंदी साहित्य‘कारियों’ से लेकर फ़िल्म‘कारियों’ तक के स्टेटस और ट्वीट्स् ध्यान से पढ़ने में कोई बुराई नहीं है। आधे से ज़्यादा ‘कल मुझे फ़लां संस्था ने सम्मानित किया, मेरे आंसू आ गए’ या ‘कल मैं बाज़ार में जा रहा था कि अचानक एक प्रशंसक मुझसे लिपट गया कि आप तो बहुत बड़े साहित्यकार हैं-बस वहीं मेरा गला भर आया’ से लेकर ‘मैं परसों बनारस जा रही हूं, ढिकां ज्वैलर्स का उद्घाटन करने’ से भरे मिलेंगे। पूछिए इन हरकतों से समाज का क्या लेना-देना !? ऐसे ट्वीट्स् डालने से क्या किसान आत्महत्या बंद कर देंगे !? कि दलित-दहन या आतंकवाद बंद हो जाएगा !? और तो और इधर एक अनशनकारी कह रहा है कि 8 तारीख़ को मैं पक्का मर जाऊंगा और उधर 7 तारीख़ को ये अनशन पर लिखी क़िताब की सोशल मीडिया पर पब्लिसिटी कर रहे हैं। इनका बस चले तो उसकी लाश पर रखकर विमोचन का फीता कटवा लें। आखि़र इतने सारे सामाजिक लोग एक ही जगह पर रोज़-रोज़ थोड़े ही मिलते हैं।

ऐसी ग़ैर-आत्ममुग्धता देखकर सर फोड़ लेने का मन होता है कि इससे बेहतर होता कि ये आत्ममुग्ध होते। काली मिर्चों के धोखे में पपीते के बीज तो न फांकने पड़ते!

-संजय ग्रोवर

व्यंग्यावतार परसाईं

 व्यंग्य


परसाईंजी महान व्यक्ति थे। उन्होंने कभी कोई ग़लती नहीं की, न जीवन में न लेखन में। यूं कहने को तो यह भी कहा जाता है कि ग़लतियां इंसान से ही होतीं हैं पर बकने वालों का क्या है, वे तो कुछ भी बकते हैं। परसाईं जी भरे-पूरे इंसान थे। उन्होंने हिंदी साहित्य में व्यंग्य को एक विधा के रूप में मान्यता दिलाई। परसाईं जी का उत्साह और साहस देखकर मान्यता देने वाले शायद कन्फ़्यूज़न में पड़ गए और उन्होंने ‘परसाईं जी के व्यंग्य’ को हिंदी व्यंग्य के रूप में मान्यता दे दी। अब मुश्क़िल यह खड़ी हो गयी कि बाद में कुछ और लोगों का भी व्यंग्य लिखने का मन होने लगा। मगर मान्यता सिर्फ़ परसाईं जी के व्यंग्य को थी। आते-आते ये भी माना जाने लगा कि व्यंग्य में जो कुछ सोचा जा सकता था, परसाईं जी ने सोच लिया है, जो लिखा जा सकता था वो भी उन्ने लिख दिया है। अब नए लेखकों के पास एक ही रास्ता था कि या तो घुमा-फिराकर परसाईं जी के लिखे को दोहराएं या फिर व्यंग्य की थाली से दूर हट जाएं। अतिरिक्त प्रयासों के तौर यह भी किया जा सकता था/है कि आप धोती या पायजामा भी परसाईं जी की तरह पहनें और बाल भी उन्हीं की तरह काढ़ें/काड़ें। क्योंकि हमारे यहां कृतित्व के साथ प्राइवेट व्यक्तित्व पर भी घ्यान दिया जाता है। आज-कल तो पॉपुलर व्यंग्यकार ग़रीबी पर लिखकर पैसा भी अच्छा कमा रहे हैं। उनके पास सुविधा है कि प्लास्टिक सर्जरी से चेहरा भी परसाईं जी जैसा बनवा लें।

अपने यहां चलन है कि पशुओं को जीते-जी और लेखकों/विचारकों को मरणोपरांत, विभिन्न गुट आपस में बांट लेते हैं। गाय, भैंस, सुअर, उल्लू, हंस-वंस को ख़ुद नहीं मालूम होगा कि उनके नाम से किस-किस महामानव ने अकाउंट खोल रखे हैं। लेखकों/विचारकों के साथ यह व्यवहार मरणोपरांत होता है। परसाईं जी को लेकर कभी-कभार होने वाले छिट-पुट विरोध पर कम्युनिस्टों का संसदीय आचरण देखकर लगता है कि ज़रूर परसाईं जी इन्हीं के हिस्से आए हैं। इनकी परसाईं पर श्रद्धा का जो प्रकार है उसे देखकर लगता है कि जल्दी ही पत्रिकाओं के ऐसे विशेषांक देखने को मिलेंगे जिनमें परसाईं जी का व्यंग्यावतार और उनके व्यंग्य-संग्रहों को धार्मिक पुस्तक घोषित किया जाएगा। वह दिन दूर नहीं जब उनके व्यंग्य दोहों और चौपाईयों की तरह रटे जाएंगे।

- संजय ग्रोवर

बुधवार, 11 जुलाई 2012

‘छत के टैंक में पनडुब्बी’ से एक अंश

हक्काल तत्काल कबूतर की गुफ़ा से निकल कर शेर के घोंसले में प्रवेश कर गया। भीतर हड्डियां तोड़ देनेवाला अंधेरा था। उसने थर्माटेप निकालकर नापना शुरु किया। घोंसला तकरीबन 300 बीघे ऊंचा और 530 टन चौड़ा था। अंधेरे में लगभग 937 परेशानियों का सामना करते हुए वह पिछले दरवाजे तक जा पहुंचा जो कि स्विटज़रलैंड की तरफ़ खुलता था।
अब मुसीबत वह थी कि दरवाज़ा खुले कैसे ? वह कान वगैरह में उंगली डालकर सोच ही रहा था कि उसकी नज़र भूसे के ढेर पर पड़़ी। आह! मिल गया! हक्काल ने आव देखा न ताव, बस गोताखोरी की पोशाक पहनी और भूसे के ढेर में कूद पड़ा। तकरीबन डेढ़ घंटा तैराकी करने करने के बाद जब वह लौटा तो उसके हाथ में एक सुई-धागा था। बस, उसने दरवाज़े को सिलना शुरु कर दिया। जहां-जहां वह सिलता जाता, वहां-वहां दरवाज़ा खुलता जाता। साढ़े तीन घंटे की तुरपन के बाद दरवाज़ा पूरी तरह खुल गया।
सामने देखा तो उसकी आंखें फटते-फटते बचीं।
सामने जिगपोली खड़ा था।
अत्सविधुरदेवाहमदम.....वो वहीं से चीखा।
औनेपौनेफिरभीकमकम......ये यहां चीखा।
दरअसल ये कोडवर्डस् थे।
दोनों में कमरतोड़ गलामिलाप हुआ।
अलग होते ही हक्काल ने जिगपोली का मुंह नोंच लिया। यह क्या !? नीचे से तो ख़ुद हक्काल निकल आया !
जिगपोली ने भी हक्काल का चेहरा उधेड़कर जिगपोली को निकाल लिया।
(क्रमशः)
मेरे आनेवाले नये जासूसी उपन्यास ‘छत के टैंक में पनडुब्बी’ से एक अंश। टू प्वांइट फ़ाइव सीग्रेड एजेंट सीरीज़ के ये उपन्यास सिर्फ़ पागलखाना प्रकाशन से प्रकाशित होते हैं।

-संजय ग्रोवर

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

अटकी पड़ीं थीं क्रांतियां क़ब्ज़ की तरह..

कविता

रेखाकृति: संजय ग्रोवर

गड़ढा खोदना क्रांति है
उसमें गिर जाना क्रांति है
झाड़कर निकल आना क्रांति है
निकलकर खिखियाना क्रांति है

किसीको पीछे से चपत मारकर भाग जाना क्रांति है
चपत मारकर खड़े रहना क्रांति है
और ये सारी क्रांतियां पकड़ाई में आ जाएं तो
ख़ुदको चपतियाना शुरु कर देना क्रांति है

और कुछ नहीं तो
बहेलियों की सहेलियां बन जाना क्रांति है
बहेलिएं बताएंगे कि कोयल को जाल से कैसे बचना चाहिए

यार एक बार क्रांति तो करनी है
कब से ड्यू है मुझपर
अच्छा सुन
अभी पिछले दिनों जो क्रांति चल रही थी
उसका क्या हुआ !?
पता नहीं यार
वैसे कुछ लोग कह रहे हैं कि हो गयी
हो गयी तो तेरा काम तो हो गया
तू तो शामिल था न उसमें
अब मैं रह गया यार

क्रांति की होम डिलीवरी नहीं होती क्या ?
होती तो होगी पर पहचानेंगे कैसे!
पहले तो कभी देखी नहीं
मुझे तो यह भी नहीं पता कि होने के बाद करते क्या हैं इसका!
तो कर क्यों रहे हो?
अरे! बाक़ी सब जो कर रहे हैं वो पागल हैं!

भेड़ियों के भी दिल ऐसे पिघले जंगल में
कि उन्होंने भेड़ों की ख़ातिर झंडे उठा लिए
कुछ भेड़ें तो भावुक हो गयीं
और कुछके पेटों में ज़मानों से अटकी पड़ीं थीं क्रांतियां
क़ब्ज़ की तरह
उन्हें भी लगा अच्छा मौक़ा है
बोलो, ज़ोर लगाके हईशा

क़िताबें आने वाली हैं जिनमें
जीसस को सूली चढ़ाने वाले
एक-एक क्रांतिकारी का
जीवन परिचय होगा बातस्वीर
वक्त आ गया है कि
कबीर को पत्थर मारनेवाले
हर जांबांज़ पर बनेंगे वृत्तचित्र

इस बार निकाल ही देनी हैं
अटकी हुई सारी क्रांतियां

ऐसी मचा दो क्रांति इस बार
कि लोग भूल जाएं
क्रांति करने वाले, पेलने वाले, झेलने वाले और खेलने वाले में
क्या फ़र्क होता है


-संजय ग्रोवर

शनिवार, 3 मार्च 2012

ये पुस्तकों के मेले...


रेखाकृति: संजय ग्रोवर

ये पुस्तकों के मेले
दिल्ली में कम न होंगे
अफ़सोस हम भी होंगे

‘कुछ तो पड़ेगा लेना
थोड़ा चना-चबैना
मैंने तेरी ख़रीदी
अब तू भी मेरी ले ना!

कुछ तू भी मुझपे लिख दे'
बोलेंगे सब थकेले
ये पुस्तकों के मेले..

पुस्तक के संग पुस्तक
देती हैं ख़ुदपे दस्तक
‘बहिना, खड़ी रहेंगीं
हम अनबिकी-सी कब तक

सब देखकर निकलते
देते नहीं हैं धेले’
ये पुस्तकों के मेले...

‘इक दिन पड़ेगा झुकना
सरकारी मद में बिकना
फ़ैशनपरस्त पाठक
की रैक में क्या सजना

हम भी वही करेंगीं
जो करते हैं दलेले’
ये पुस्तकों के मेले...

--संजय ग्रोवर
रेखाकृति: संजय ग्रोवर


(पैरोडी बतर्ज़ ‘ये ज़िंदगी के मेले..’, फिल्म: मेला, गायक: मो. रफ़ी, संगीत...
नोट: ये सब लिखने से इम्प्रैशन अच्छा पड़ता है)

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

शेर है, रुबाई है, दोहे हैं, पता नहीं क्या है? पर कुछ है-


उन्हें लगा मैं हार गया हूं, हाथ सभीने खींचे
उन्हें लगा मैं जीत गया हूं, हो लिए पीछे-पीछे
कह बैठा ‘तुम सब गिरगिट हो’, दांत सभी ने भींचे
अब बस पत्थर ही पत्थर थे और मैं आंखें मींचे

--संजय ग्रोवर ;)

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