रेखाकृति: संजय ग्रोवर |
ये पुस्तकों के मेले
दिल्ली में कम न होंगे
अफ़सोस हम भी होंगे
‘कुछ तो पड़ेगा लेना
थोड़ा चना-चबैना
मैंने तेरी ख़रीदी
अब तू भी मेरी ले ना!
कुछ तू भी मुझपे लिख दे'
बोलेंगे सब थकेले
ये पुस्तकों के मेले..
पुस्तक के संग पुस्तक
देती हैं ख़ुदपे दस्तक
‘बहिना, खड़ी रहेंगीं
हम अनबिकी-सी कब तक
सब देखकर निकलते
देते नहीं हैं धेले’
ये पुस्तकों के मेले...
‘इक दिन पड़ेगा झुकना
सरकारी मद में बिकना
फ़ैशनपरस्त पाठक
की रैक में क्या सजना
हम भी वही करेंगीं
जो करते हैं दलेले’
ये पुस्तकों के मेले...
--संजय ग्रोवर
रेखाकृति: संजय ग्रोवर |
(पैरोडी बतर्ज़ ‘ये ज़िंदगी के मेले..’, फिल्म: मेला, गायक: मो. रफ़ी, संगीत...
नोट: ये सब लिखने से इम्प्रैशन अच्छा पड़ता है)
मजा आया साब |
जवाब देंहटाएंthanks
हटाएंअच्छी कविता है! पर आप क्यों thanks बोल रहे हैं?
हटाएंये पुस्तकों के मेले...
जवाब देंहटाएंजाने दीजिये सर सेंत मत क्जिजिये नहीं तो आँखों में आंसू आ जायेंगे...हाय रे सरकारी खरीद...हाय हाय..
ये पुस्तकों के मेले...
जवाब देंहटाएंजाने दीजिये सर सेंत मत क्जिजिये नहीं तो आँखों में आंसू आ जायेंगे...हाय रे सरकारी खरीद...हाय हाय..
bahut khub hi hi ,,,
हटाएंअद्भुत!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और रोचक कविता बन गई है...:)
जवाब देंहटाएंshukriya isi tsrah hmare badhe hue utsaah ko aur badhaate rahen
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक पैरोडी |
जवाब देंहटाएंआशा
रोचक!!!
जवाब देंहटाएंसत्य उकेरा है …………शानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसत्य उकेरा है ।
जवाब देंहटाएंmazaa aa gya sanjay ji
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