बुधवार, 25 दिसंबर 2013

सादगी और भौंपू

लघुकथा


सादगी ने निर्णय लिया कि वह ख़ुले मैदान में नृत्य करेगी।

भौंपू बजने लगे।

लोगों ने तालियां बजाईं। लोगों का तो आपको मालूम ही है। कभी न कभी आप भी लोग रहे होंगे। हो सकता है अभी भी हों।

लोग जैसे सोचने के लिए कम और श्रद्धा करने के लिए ज़्यादा पैदा हुए हैं।

लेकिन लोगों में कुछ पागल भी होते हैं। एक ने कहा कि इसमें तो दस-बीस गुना ख़र्चा ज़्यादा होगा, पचास गुना भी हो सकता है। सुरक्षा की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। उसमें भी अच्छा-ख़ासा ख़र्चा आएगा। यह तो एक रस्मी नृत्य है, न भी किया जाए तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इससे सिर्फ़ आपकी सादगी का प्रचार होगा। सादगी के प्रचार पर इतना ख़र्च आ जाए तो उसे सादगी क्यों माना जाए.......

पागल अभी बोल ही रहा था कि भोंपू ज़ोर-ज़ोर से बजने लगे। पागल की आवाज़ भोंपुओं के शोर में दब गई.....

भोंपू महंगे थे और तथाकथित सादगी की सोच-समझ को बख़ूबी व्यक्त करते थे। 

-संजय ग्रोवर

26-12-2013

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

हाय रे हाय! भंवरा बेईमान

लघुकथा

मक्खियों की मुक्ति के लिए कई संगठन बनाए गए थे जिनमें से ज़्यादातर की प्रमुख तितलियां थीं। मक्खियां अकसर तितलियों से प्रभावित थीं। उनके बड़े-बड़े, रंगीन और ख़ूबसूरत पर देखकर उनमें भी यह इच्छा पैदा हो जाना स्वाभाविक था कि वे भी किसी दिन उन्हीं की तरह उड़ान भरें। हांलांकि तितलियां कई बार क़िताबों में सूखी हुई बरामद होतीं थीं फिर भी उनमें अपने तितली होने को लेकर एक गर्व का भाव बराबर बना रहता था। 

और तितलियां जो थीं, भंवरों से प्रभावित थीं। हट्टे-कट्टे बलिष्ठ भंवरे। चिकने-चुपड़े। चमकते हुए बालविहीन सरों वाले भंवरें। जाकर किसी भी फूल पर बैठ जाते और उसे चूस डालते। कितना साहसी है रे! आवारा कहीं का! तितलियां बस मर-मर जातीं। मक्खियों का संचालन कैसे किया जाए कि इनके दिमाग़ एकदम से चढ़ न जाएं, इस बारे में निर्देश वे अकसर मक्खीवादी और चींटीवादी भंवरों से ही लिया करतीं।

वे जानतीं थीं कि अंदर से वे सब भंवरे भी दरअसल तितलीवादी हैं।

इस तरह मक्खियों, चींटियों और तितलियों की मुक्ति की लड़ाई पर भंवरों ने कुशलतापूर्वक होल्ड रखा हुआ था।


-संजय ग्रोवर

22-10-2013

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

न्यू कबीर एण्ड संस्

व्यंग्य


यह कल्पना ही दिलचस्प है कि कबीरदास एक राजनीतिक दल के घोषित तौर पर सदस्य हैं। तीन दलों में उनका अच्छा आना-जाना, उठना-बैठना और खाना-पीना है, पांचवे की भी समय-समय पर तारीफ़ कर देते हैं। कमाल एक उद्योगपति के अख़बार में संपादक है,दो-चार लाख़ रु महीने के कमाल दिखा रहा है, लोई अपनी मम्मी के साथ दो एन. जी. ओ. चला रही है। सारा परिवार सारे चैनलों पर बुलाया जाता है, हर जगह छपता-छुपता है।

जो कोई भी उनसे तर्क करता है उसे वे तर्कपूर्ण जवाब देने के बजाय वामपंथी, संघी, हिंदू, मुस्लिम, कांग्रेसी, भाजपाई, सपाई-बसपाई वगैरह सिद्ध करने में जुट जाते हैं। या उससे उसकी पढ़ाई के सर्टीफ़िकेट मांगने लगते हैं। साथ चल रहे अपने असिस्टेंट से अपनी डिग्रियों की फ़ाइल दिखाने को कहते हैं।

कबीरदास पुरस्कार के लिए लॉबीइंग कर रहे हैं।

कबीरदास फ़ेसबुक पर स्टेटस डालने के लिए पार्टी-लाइन, एजेण्डा और मैनीफ़ैस्टो का अध्यन कर रहे हैं।

कबीरदास पत्थरवादियों में शामिल होकर एक अकेले पड़ गए आदमी पर पत्थर मार रहे हैं।

कबीरदास तर्क के नाम पर अफ़वाहें फैला रहे हैं।

कबीरदास ने अपना संगठन बना लिया है और विपरीत विचारों वाले लोगों को ख़त्म करने के लिए उनके आस-पास अपने आदमी प्लांट कर रहे हैं।

कबीरदास अपने वातानुकूलित ऑफ़िस में लंगोटी पहने, लकुटिया संभाले सब कुछ छोड़कर चलने को (फ़िर दोगुनी-चार गुनी ‘उपलब्धियों’ के साथ लौटने को) तैयार बैठे हैं। पीछे शोकेस में विभिन्न अवार्ड और ट्राफ़ियां बिलकुल ऐसे ही सजी हैं जैसे उस संस्कृति के लोगों के यहां सजी हैं जिनके वे कट्टर विरोधी हैं।




और जिसके पास इनमें से कुछ नहीं, वह उनके वातानुकूलित ऑफ़िस में घुसने से डर रहा है। 



वैसे, ऐसे कबीरदास से मिलकर वह करेगा भी क्या ?

-संजय ग्रोवर


05-10-2013

 

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

करता भी क्या !

लघुकथा


लोग उसकी वजह से मुझसे नफ़रत करते थे।

और वह उन्हीं लोगों के डर से मुझसे नफ़रत करता था।

-
संजय ग्रोवर

13-10-2013

 

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

उनकी तरह सफ़ल होने की चाहत में


जिनके खि़लाफ़ लड़ रहा था
उन्हीं के समर्थन से लड़ने लगा

लड़ते-लड़ते
नाचने लगा

थका तो रुकना चाहा
मगर डोरियां तो उन्हीं के हाथ में दे दी थीं

अब नाचते रहने के सिवा
कोई चारा न था


-संजय ग्रोवर
10-10-2013

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

मैसेज वाला देश

लघु व्यंग्य

वह भी एक देश था, सचमुच का देश था।

किसीको सज़ा होनेवाली थी। पत्रकार चर्चा कर रहे थे।

कोई बोला,‘‘उनमें अहंकार बहुत आ गया था, लोगों से उल्टा-सीधा बोलने लगे थे।’’

दर्शकों में मैसेज गया कि अदालतें पत्रकारों के बदले लेने के लिए और अहंकारी को विनम्रता सिखाने के लिए होती हैं।

कोई और पत्रकार बोला,‘‘उनका घर-परिवार-वंश कैसे चलेगा !? उनका लड़का नंबर एक लायक है, लड़की नंबर दो ऐसी है, चाचा बहुत सामाजिक हैं, मामा जुझारु राजनेता हैं...........

दर्शकों में मैसेज गया कि चैनल भविष्य वक्ता ही नहीं बिठाते बल्कि दूसरों के घर-परिवार-दल आदि भी चलाते हैं। सज़ा होगी कि नहीं होगी, लगता है यह भी उन्हें कन्फ़र्म रहता है।

एक और पत्रकार उछला,‘‘सत्ता-प्रमुख उनके विरोध में थे जबकि सत्ता-मुख को उनसे हमदर्दी है।’’

मैसेज निकला कि अदालतें मुख-प्रमुख की मोहताज होतीं हैं।

एक पत्रकार बोला कि जब ‘उन्हें पकड़ा गया तो उनके चेहरे पर हवाईयां उड़ रहीं थीं।’

मैसेज गया कि जिसके चेहरे पर हवाईयां उड़ रहीं हों, पक्का वही अपराधी है। अगर कोई अकेला आदमी गुंडों में घिर जाए तो हवाईयां अकेले के चेहरे पर ही उड़ेंगीं ; ज़ाहिर है वह आदमी ग़लत है। अगर कोई लड़की बलात्कारियों में घिर जाए तो ज़ाहिर है कि हवाईयां लड़की के चेहरे पर उड़ेंगी। तो...

कुल मिलाकर एक मैसेज गया कि ईमानदारी-बेईमानी तो आती-जाती रहतीं हैं, बड़े(!) लोगों से एडजस्ट नहीं करोगे तो फंसोगे हर हाल में तुम ही।

-संजय ग्रोवर

03-10-2013


सोमवार, 30 सितंबर 2013

कर लिया तय

लघु व्यंग्य


‘तो बेटा पहले तय करो कि किस तरफ़ हो तुम.......

‘ठीक है सर, मैं तो हिंदू हूं।’

‘और सर, मैं मुसलमान हूं।’

‘अरे नहीं, मेरा वो मतलब नहीं है......’

‘तो क्या मतलब है सर ?’

‘मतलब तुम ग़रीब की तरफ़ हो या अमीर की तरफ़, कमज़ोर की तरफ़ या ताक़तवर की तरफ़.....’

‘सर, ग़रीब, मतलब कितना ग़रीब, मतलब मंथली इनकम कितनी हो ? मैं सोचता हूं कि तय ही करना है तो पूरी बारीक़ी में जाकर करें।’

‘हां सर, मेरे दो-तीन अमीर दोस्त ऐसे हैं जो पिछले हफ़्ते ग़रीब थे, अब मैं उनके खि़लाफ़ हो जाऊं क्या ?’

‘सर, ईमानदार और बेईमान में से कैसे तय करें, कई ग़रीब बेईमानी से अमीर बने हैं, कई बेईमानी के बावजूद भी ग़रीब हैं, कई अमीर बेईमानी के कारण जेल में हैं, मीडिया कहता है कि कई निर्दोष भी जेल में हैं, कईयों ने ज़्यादा बेईमानी की थी मगर जेल के बाहर हैं ; तो जेल के आधार पर भी तय करना मुश्क़िल है !’

‘तय करने का मामला अजीब है, पिछले दिनों कुछ लोगों ने तय कर दिया था कि भ्रष्टाचार जो है आरक्षण के बाद से बढ़ गया है।’

‘सर आपका भी तीन-चार गुटों से मिलना-जुलना है, आप अपना काम लेकर किसीके भी पास चले जाते हैं आपकी ही तय करनेवाली सोच के ही कई प्रबुद्धजन कथित मौत की आग़ जलानेवाले गुट के कथित धर्मनिरपेक्ष प्रधान शक़लधारी जी से अच्छी दोस्ती रखते थे।’

‘सर, मैंने तय किया था सभी स्त्रियों का सम्मान करुंगा, पिछले हफ़्ते एक स्त्री जिसका मैं सम्मान करता था, उसने अपनी बहू को जला दिया....अब मैं चक्कर में पड़ गया हूं !’

‘सर, मुझे किसीने तय करके दिया था कि दोस्ती से बड़ा कोई रिश्ता नहीं है, मगर कल मेरे एक दोस्त ने अपने एक दोस्त के 50,000 रु मार लिए। दोस्त का दोस्त रोता हुआ मेरे पास आया। अब मैं कशमकश में हूं कि ईमानदारी की तरफ़ बोलूं कि दोस्ती की तरफ़ जाऊं!?’

‘सर, मुझे लगता है, तय करनेवाले ज़रा मोटी बुद्धि के लोग होते हैं, वे उधार की सोच पर निर्भर करते हैं.....’

‘हां, सर, मुझे लगता है पहले से सब तय कर-करके वही रखते हैं जिनमें तुरंत निर्णय लेने की क्षमता और विवेक नहीं होते.......’

‘हां, सर, हम जब जिसकी जो बात ठीक लगेगी, ठीक कहेंगे, खराब लगेगी, ख़राब कहेंगे.....’

‘सर, मैंने भी तय किया है कि हम कुछ तय नहीं करेंगे.....’

-संजय ग्रोवर

30-09-2013

सोमवार, 23 सितंबर 2013

रचनात्मक


‘एक ही तरीक़ा है, और अहिंसक तरीक़ा है....’
‘क्या सर?’
‘उसकी इमेज ख़राब कर दो, मटियामेट कर दो, उसके लिखे को लेकर भ्रम फ़ैलाओ, उसके बारे में कहानियां गढ़कर फ़ैला दो........ख़त्म हो जाएगा....
‘ओके सर। डन।’

*                            *                                  *

‘हां, हो गया काम ?’
‘नहीं सर, एक प्रॉबलम आ रही है......
‘प्रॉबलेम, इतने ज़रा-से काम में प्रॉबलेम! पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ!!’
‘वो सर.....क्या है कि...उसकी कोई इमेज ही नहीं है.....ख़राब किसे करें !?’
‘क्या बात करते हो ? लोग तो इमेज के लिए जीते हैं, बल्कि जीते-जी मर जाते हैं! यह कैसा आदमी है जो इमेज के बिना जीता है!!’
‘.........................’
‘हुम......, एक काम करो......पहले उसकी कोई इमेज बनाओ। और जब बन जाए तो उसे ख़राब कर देना। अब देखते हैं कैसे बचता है.....जाओ शुरु हो जाओ ; इस बहाने कुछ रचनात्मक काम भी होगा....
‘रचनात्मक! वाह ! क्या आयडिया है सर ! इसे डन समझिए सर।’

-संजय ग्रोवर

23-09-2014


रविवार, 11 अगस्त 2013

मशहूरी

लघु व्यंग्य

‘सुनिए, हां जी, आपसे बात करनी थी........’

‘मुझसे !!! बात !!! कुछ समझा नहीं !? क्यों ? आप ?’

‘परेशान न हों, दरअसल हम उनसाहब पर एक प्रोग्राम कर रहे हैं ; पता चला कि आपके पुराने परिचित हैं, क़रीबी हैं तो सोचा...’

‘अच्छा, अच्छा, तो ऐसा कहिए न..... उन साहब को तो बहुत बड़ा अवार्ड मिला है अभी...’

‘हां वही.....’

‘मैं तो बड़ा फ़ैन हूं उनका, जिगरी दोस्त हैं भई....’

‘हां, वही हम पूछ रहे थे कि........’

‘जी, मैं वही बता रहा हूं, कितने लोग उनसे मिलने आते हैं, जगह-जगह उनके आर्टीकल छपते हैं, भई जीनियस आदमी हैं....’

‘तो कुछ बात करनी थी उनको लेकर.....’

‘हां, टीवी पर अकसर आते हैं, नाम रोशन किया है जी उन्होंने मां-बाप का, शहर के लोग नाज़ करते हैं उनपर.......’

‘जी, आपको पहली बार कब........’

‘अरे, कल ही अपनी स्माइल बता रही थी कि पापा, कोई गोष्ठी, सभा, सेमिनार, प्रदर्शन, प्रदर्शनी...उनके बिना जैसे कुछ पूरा ही नहीं होता.....मैं बहुत प्रभावित हूं जी उनसे.......’

‘अच्छा उनकी कौन-सी क़िताब सबसे ज़्यादा पसंद आई आपको?’

‘क़िताब! क़िताब क्या! पसंद आई! अच्छा, अच्छा.....क़िताब साहब ऐसा है कि क़िताब पढ़ने के लिए पूरा वक्त चाहिए होता है.....अब मैं निकलता हूं सुबह सात बजे, आता हूं दस बजे, फिर खाना-पीना, बच्चों के साथ बैठना, मैडम के साथ घूमने भी जाना होता है रात को.....फिर क़िताब! क़िताब कैसे मतलब......आप भी कामवालें आदमी हैं, सब समझते हैं.....’

‘जी, हम समझते हैं, आपने हमारे लिए वक्त निकाला, बहुत शुक्रिया आपका......’

-संजय ग्रोवर
11-08-2013

शनिवार, 20 जुलाई 2013

मेरे क़दमों में आ गिरी खिड़की

ग़ज़ल

एक खिड़की से दूसरी खिड़की
ज़िंदगी रह गई निरी खिड़की

आसमां जिसपे, बंद दरवाज़ा
उसके जीवन में बस झिरी खिड़की

कुछ तो देखा भी करदो अनदेखा
बन न जाए ये झुरझुरी खिड़की

उसके ख़्वाबों पे क्या गिरी बारिश ?
उसके आंसू में क्यों तिरी खिड़की !

सर मेरा आसमां से टकराया
मेरे क़दमों में आ गिरी खिड़की


-संजय ग्रोवर

ताज़ा बारिश में ताज़ा ग़ज़ल

शुक्रवार, 10 मई 2013

ईश्वर सब देख रहा है!




पता नहीं कौन लोग रहें होंगे, कैसे लोग रहे होंगे जिन्होंने ईश्वर को बनाया। और बनाए रखने के लिए तरह-तरह की स्थापनाएं और दलीलें खड़ी कीं। मैं जब कभी इन तर्कों की ज़द में आ जाता हूं, मेरी हालत विचित्र हो जाती है। ईश्वरवालों का कहना है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है, वह सब कुछ देख रहा है। थोड़ी देर को मैं मान लूं कि यह बात सही है तो! होगा क्या ?
मैं बाथरुम में नहा रहा हूं। एकाएक मुझे याद आता है कि बाथरुम में मैं अकेला नहीं हूं, कोई और भी है। कोई मुझे टकटकी लगाकर देख रहा है! और ख़ुद दिख नहीं रहा है। यानि कि बदले में मैं कुछ भी नहीं कर सकता। हे ईश्वर, यह तू क्या कर रहा है!? कई दिन बाद तो साफ़ पानी आया है नलके में और तू ऊपर खूंटी पर चढ़कर बैठ गया! मैनर्स भी कोई चीज़ होती है, कृपानिधान! एक दिन तो ढंग से नहा लेने दे!

आपको याद होगा जब आप अपने एक परिचित के घर पाखाने में विराजमान थे, चटख़नी ख़राब थी, किसीने बिना नोटिस दिए दरवाज़ा खोल दिया और आप पानी-पानी हो गए थे। और इधर तो टॉयलेट में ईश्वर मेरे साथ है! अब क्या करुं! यह सर्वत्रविद्यमान किसी भी ऐंगल से आपको देख सकता है-ऊपर से, नीचे से, दायें से, बायें से...कहीं से भी। मन होता है कि क्यों न पटरी किनारे खेत में चलकर बैठा जाए! अब बचा ही क्या! सारी प्रायवेसी की तो ऐसी की तैसी फेर दी ईश्वर महाराज ने।

यह ग़ज़ब फ़िलॉस्फ़ी है कि ईश्वर सब कुछ देख रहा है और कह कुछ भी नहीं रहा। इससे ही बल मिलता होगा कर्मठ लोगों को। वह आदमी भी तो कर्मठ है जो सिंथेटिक दूध बना रहा है। वह बना रहा है और ईश्वर बनाने दे रहा है। तो सीधी बात है ईश्वर उसके साथ है। तो डरना किससे है फिर !? इसीलिए वह मज़े से होली-दीवाली पर छोटे डब्बेवालों को इंटरव्यू देता है। मुंह पर ढाटा क्यों बांध रखा है इसने!? शायद प्रतीकात्मक शर्म है यह! वरना तो उसे पता ही है कि चैनलवाले और देखने वाले, सभी ईश्वर के माननेवाले हैं। मैं सिंथेटिक दूध बनाता हूं तो ये सिंथेटिक ख़बरें बनाते हैं। सब एक ही ख़ानदान के चिराग़ हैं, एक ही ईश्वर की संतान हैं।
ऐसे कर्मठ लोग भरे पड़े हैं हर धंधे में। ईश्वर उनको देख रहा है मगर कह कुछ भी नहीं रहा! करने का तो फिर सवाल ही कहां आता है!

ईश्वर को यह बात अजीब लगे कि न लगे, मुझे बहुत अजीब लगती है।

-संजय ग्रोवर


गुरुवार, 21 मार्च 2013

आप कुछ बनते क्यों नहीं!


लघुकथा

रेखाकृति: संजय ग्रोवर


‘देखिए, हम चाहते हैं आप कुछ बनें।’
‘बनें!? बनते कैसे हैं, मैं तो जो हूं, ऑलरेडी हूं ही !‘
‘नहीं, नहीं......मतलब हम चाहते हैं आप किसी अच्छी जगह पहुंचें।’
‘अच्छी जगह!? मुझे तो अच्छा आदमी नाली के मुहाने पर बैठा दिखाई दे तो वह जगह अच्छी लगने लगती है। गंदा आदमी कितनी भी बढ़िया कुर्सी पर बैठा हो, मुझे बदबू आती है। आप कहां भेजना चाहते हैं मुझे?’
‘देखिए, आप मज़ाक़ बहुत करते हैं, हम चाहते हैं कि आप कीचड़ में कमल की तरह खिलें, ऊपर उठें।’
‘आप इसे मज़ाक़ समझ रहे हैं! अच्छा! चलिए, बताईए ऊपर उठने के लिए क्या करुं?’
‘आप अपना हाथ हमारे हाथ में दीजिए।’
‘ठीक है, कहां है आपका हाथ?.........दायें.....नहीं है......बाएं....नहीं है.......ऊपर.....वहां भी नहीं है....आप ख़ुद हो कहां!?’
‘कमाल करते हैं आप! इधर नीचे देखिए।’
‘नीचे! ओह! अच्छा...वहां अंधेरे में धुंधला-सा कुछ दिखाई तो दे रहा है....मगर इतना नीचे कैसे पहुंच सकता है मेरा हाथ!? मुझे उठाना है तो आप ख़ुद थोड़ा ऊपर आईए। वरना मैं यहीं ठीक हूं।’


-संजय ग्रोवर 


रविवार, 17 फ़रवरी 2013

देखा!



रेखाकृति: संजय ग्रोवर
मेरिटोन्मत्त लंपटाचार्य ने अपने नयन-कटोरों में पड़े आत्मविश्वास को सिक्कों की तरह उछालते हुए एकलव को संबोधित किया, ‘‘देखा, हम शिक्षा न देकर भी दक्षिणा ले लेते हैं। उंगली ख़ुद करते हैं अंगूठा तुम्हारा काट लेते हैं। मुंह हम मारेंगे लंपट तुम कहलाओगे क्योंकि प्रसारण में तो चौतरफ़ा हम ही हम पसरे हैं..........’’

एकलव धीमे से मुस्कुराया, दूसरे हाथ से रिमोट उठाकर टी वी ऑफ़ कर दिया और फ़िर से अपनी पोस्ट लिखने में व्यस्त हो गया।

-संजय ग्रोवर
17-02-2013

शनिवार, 26 जनवरी 2013

भ्रष्टाचार में एकाधिकार

रेखाकृति: संजय ग्रोवर
भ्रष्टाचार हर किसीके बस की बात नहीं। इसके लिए एक ख़ास क़िस्म की मेरिट चाहिए होती है। ख़ासी तपस्या करनी पड़ती है। दुनियादारी को भी साधना पड़ता है। भ्रष्टाचार के पवित्र लोक में ऋषित्व-मुनित्व का दर्ज़ा ऐसे ही नहीं मिल जाता।
जिन लोगों को यह हुनर परंपरा, ख़ानदान और (अपनी ही बनाई) संस्कृति से मिला होता है, उनकी हनक ही कुछ और होती है। इनमें आत्मविश्वास इतना ग़ज़ब का होता है कि ये भ्रष्टाचार करने के साथ-साथ ही उसे मिटाने के तरीके भी छाती ठोंककर हर प्रचार-माध्यम पर बताते चलते हैं। भ्रष्टाचार में इनकी परिपक्वता का अंदाज़ा आप इसीसे लगा सकते हैं कि भ्रष्टाचार हटाने के ज़्यादातर कार्यक्रमों के मुहूर्त्त भी इनके बिना संभव नहीं हो पाते। ये अपना काम होशियारी से करते हैं और, सुनते हैं कि कोई सुबूत नहीं छोड़ते। छोड़ भी दें तो ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि परंपरा भी इनकी, ख़ानदान भी इनके, संस्कृतियां भी इनकी यानि चारों तरफ़ अपने ही बंधु-बांधव बैठे हों तो घर की बात घर में ही बनी रहती है। बिगड़ने वाला और बिगाड़ने वाला, पकड़ा जाने वाला और पकड़ने वाला अगर गुरु-चेला हों तो फिर कोई कर भी क्या लेगा!
इसके विपरीत नये, शौक़िया और कच्चे भ्रष्टाचारी मात खा जाते हैं। वे पकड़-पकड़ जाते हैं। वे बुद्धू नहीं समझते कि लौंग-लास्टिंग और फ़ुल-प्रूफ़ भ्रष्टाचार करना हो तो उसके साथ कुछ नैतिक कहानियां, भले काल्पनिक और बेसिर-पैर की हों, जोड़नी पड़तीं हैं, कुछ कर्म-कांड विकसित करने पड़ते हैं, कई बार अध्यात्मिक टच भी देना पड़ता है, ठीक से ठगने के लिए विनम्रता और सभ्यता सीखनी पड़ती है। ख़ानदानी मेरिट और प्रेरक परंपरा के अभाव में अधपके भ्रष्टाचारी बीच रास्ते ही अपने घुटने तुड़ा बैठते हैं। ये नहीं समझते कि भ्रष्टाचार में ठगी का रेश्यो जितना ज़्यादा होगा, पकड़ जाने की संभावनाएं उतनी ही कम होतीं जाएंगीं। शायद इसी वजह से सदियों से जमे भ्रष्टाचारी इन्हें अपने साथ उठने-बैठने लायक नहीं मानते। उनके नकपके व्यवहार से कुछ ऐसा भान होता है जैसे वे किसी कथित कल्पित उच्च जाति के हों और ये किसी कथित कल्पित नीची जाति के।
ज़ाहिर है कि उन्हें इस बात की तक़लीफ़ भी होती ही होगी कि जो धंधा हमने जनमोंजनम लगाकर इतनी मेहनत या तिकड़म वगैरह से जमाया, उसमें नये और अयोग्य लोग क्यों घुसे आ रहे हैं। कहीं ये हमारी भाषा और संस्कृति को नष्ट न कर दें।


-संजय ग्रोवर
27-01-2013

ब्लॉग आर्काइव