मंगलवार, 30 सितंबर 2014

ठेस का मरीज़

व्यंग्य


डॉक्टर: हां आप बताईए, आपको क्या हुआ है ?

मरीज़: जी मुझे ठेस लगी है।

डॉक्टर: कहां लगी है ?

मरीज़: सर मेरी भावनाओं को चोट पहुंची है।

डॉक्टर: भावनाओं को........! अच्छा अच्छा, आप तो पिछले सप्ताह भी दो-तीन बार आए थे न ? मैंने आपको ताक़त के कैप्स्यूल दिए थे....

मरीज़: सर कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ा.....

डॉक्टर: हुम्म्म्म्म्म्म, लगता है कमज़ोरी ज़्यादा है। इतनी जल्दी-जल्दी आपकी भावनाओं को चोट पहुंचती रहती है, थोड़ा इन्हें कवर करके रखा करें, थोड़ा मजबूत बनें, ऐसे कैसे काम चलेगा ?

मरीज़: सर वो तो हो नहीं पा रहा.....

डॉक्टर: तो ऐसा कीजिए, लोगों से मिलना-जुलना बंद कर दीजिए, दो-चार साल घर पर आराम कीजिए। देखिए, देश में लोकतंत्र है, लोकतंत्र में सबको अपने विचार प्रकट करने का हक़ होता है। आपको शायद लोकतंत्र सूट नहीं करता इसलिए बार-बार बीमार पड़ जाते हैं....

मरीज़: तो सर कोई एंटी-लोकतंत्र दवा नहीं है क्या ?

डॉक्टर: है तो सही पर अभी स्टॉक में नहीं है, ठेस के मरीज़ बहुत हैं न, इसलिए ख़पत बहुत है, बाहर ही बाहर मार्केट से ब्लैक में ख़रीद लेते हैं....

मरीज़: तो अब मैं क्या करुं सर ?

डॉक्टर: आप ऐसा करें, अंदर मनोचिकित्सक बैठते हैं, उनके पास चले जाईए.....

मरीज़: वे क्या करेंगे ?

डॉक्टर: वे सिर्फ़ वही बातें करेंगे जो आपको पसंद हैं। आप कोई बात करेंगे तो वे सिर्फ़ हां में हां मिलाएंगे, चाहे
उन्हें कुछ समझ में आए न आए....बाद में प्रति घंटा के हिसाब से फ़ीस ले लेंगे.....

मरीज़: यह अच्छा आयडिया दिया सर आपने.......मैं तो अंदर जाता हूं....

-संजय ग्रोवर
30-09-2014


सोमवार, 22 सितंबर 2014

भगवान के दूत


राजधानी का एक संपन्न इलाक़ा जहां कुछ ग़रीबों को भी ‘बिज़नेस’ करने की अनुमति है। बिज़नेस मायने ग़ुब्बारे बेचना, मिट्टी के सस्ते खि़लौने बेचना, भीख मांगना या कुछ ऐसे ही और छोटे-मोटे काम करना।

एक बड़ी और सुंदर गाड़ी। एक हृष्ट-पुष्ट लड़का उतरता है। उसके हाथ में 500-500 रु. के कुछ नोट हैं। उतरकर फ़ुटपाथ पर जाता है जहां एक फ़टेहाल पगली खड़ी आसमान से बातें कर रही है।
‘आप भगवान को मानतीं हैं?’ हृष्ट-पुष्ट लड़का पूछता है।
‘.............’
‘‘मुझे भगवान ने भेजा है, यह लो‘‘, वह 500रु. का एक नोट पगली के हाथ में थमा देता है।
पगली ख़ुशी से नाचने लगती है। उसके कपड़े फ़टे हैं, फ़ुटपाथ पर, और उससे पहले न जाने क्या-क्या सहती आई है मगर नाच रही है। पगली जो है।
हृष्ट-पुष्ट लड़का मन ही मन नाच रहा है। इसने पगली जैसा कुछ नहीं सहा, यूं भी अकसर नाचता ही रहता है। दोनों भगवान को मानते हैं।

यह लड़का एक ग़रीब ग़ुब्बारेवाले के पास पहुंचता है-
‘‘आप भगवान को मानते हैं?’’
‘‘हां, मानता हूं, बहुत मानता हूं।’’
‘‘यह लो 500रु., मुझे भगवान ने भेजा है।’’
ग़ुब्बारेवाला पल-भर सकुचाता है, फिर स्वीकृति के भाव से नोट ग्रहण करता है।

हृष्ट-पुष्ट लड़का इसी तरह कुछ और नोट भगवान को माननेवाले ग़रीबों को बांटता है।

एक फ़टेहाल लड़का अख़बार बेच रहा है।
हृष्ट-लड़का उसके भी पास पहुंच गया है-
‘‘आप भगवान को मानते हैं?’’
अख़बारवाला लड़का उसका मुंह देखने लगता है।
हृष्ट-पुष्ट थोड़ी अड़चन में है। पहली बार उसे अपना सवाल दोहराना पड़ रहा है।
‘‘आप भगवान को मानते हैं ?’’
‘‘.....मानता हूं...तो ?’’
‘‘यह लीजिए, मुझे भगवान ने भेजा है।’’
‘‘ओह! अच्छा! भगवान ने आपको क्यों भेजा!? वह ख़ुद क्यों नहीं आया ?’’
‘‘.............’’
‘‘मुझे भगवान से मिलना है...सुनिए...रुकिए तो सही...मुझे भगवान से मिलना है..’’
‘‘भगवान हर जगह ख़ुद नहीं जा सकते, उन्होंने तुम्हारे लिए मुझे भेजा है।’’
‘‘क्यों, तुम्हारे पास आ सकते हैं तो मेरे पास क्यों नहीं आ सकते?’’
‘‘देखिए आप यह हज़ार रुपए रखिए, मुझे औरों के पास भी जाना है, मैं चलता हूं...’’
‘‘नहीं...मैं आपको ऐसे नहीं जाने दूंगा....यहां राजधानी में ऐसे भी फ्रॉड बहुत होते हैं...आपको सबूत देना होगा कि आपको भगवान ने भेजा है...’’
‘‘..........मगर मैं ऐसा क्यों करुंगा...मैं कुछ दे ही रहा हूं, कुछ ले तो नहीं रहा?’’
‘‘क्या पता तुमने कहीं छुपा कैमरा लगा रखा हो ? बाद में इसे इधर-उधर अपलोड करके हीरो बनते फिरोगे। अपने-आपको श्रेष्ठ साबित करोगे। लड़कियों को इम्प्रैस करोगे। पांच-दस हज़ार रुपए ख़र्च करना तुम जैसों के लिए मामूली बात है......’’
‘‘......................’’
‘‘तुम तो एकदम चुप हो गए?’’
‘‘आप मेरा हाथ छोड़िए....देखिए हम सब एक ही भगवान के बनाए हुए हैं.....उन्होंने मुझे देने के लिए चुना है और तुम्हे लेने के लिए......’’
‘‘पर मुझे तो भगवान बताने आया नहीं कि उसने मुझे पैसे लेने के लिए चुना है !?’’
‘‘...........’’
‘‘तुम जवाब क्यों नहीं दे रहे? ठहरो! तुम्हारी शक़्ल तो उस आदमी से मिलती है जो टीवी पर कह रहा था कि कोई नेता अगर ग़रीब जनता से रुपए या दारु देकर वोट मांगे तो बिलकुल मत देना......कमाल है! अगर तुम वही हो तो ख़ुद कितना गिरा हुआ काम कर रहे हो!?’’
‘‘देखिए......’’
‘‘मुझे भगवान से पूछना है कि इन हज़ार रुपयों से मेरा क्या काम हो सकता है, बाक़ी सारी ज़िंदगी मैं क्या करुंगा? सुनो, तुमने कहा हम दोनों तो एक ही भगवान के बनाए हुए हैं। ऐसा करो, तुम अपना गाड़ी और घर मुझे दे दो, मैं वहां रहूंगा, तुम यहां अख़बार बेचो......’’
‘‘नहीं, मैं अख़बार नहीं बेच सकता, मुझे अपना काम पूरा करना है......’’
‘‘लेकिन मुझसे भगवान ने कहा है कि जो लड़का तुम्हे पांच सौ रुपए देने आएगा उसके गाड़ी और घर तुम ले लेना, और उसे यहां अख़बार बेचने को खड़ा कर देना......’’
‘‘..........’’
‘‘कमाल है! तुम कुछ बोल ही नहीं रहे....मैं तो तुम्हारे भगवान की इच्छा मान रहा हूं, तुम मेरे भगवान की इच्छा क्यों नहीं मान रहे......मैं पुलिस को बुलाऊं क्या?’’
‘‘................................’’

अख़बार वाले लड़के ने हृष्ट-पुष्ट लड़के का हाथ पकड़ा हुआ है और बात-चीत जारी है.......

(मजबूर लोगों में पैसे बांटकर भगवान को सिद्ध करने की चेष्टा करने का एक हास्यास्पद वीडियो देखने के बाद लिखा गया)

-संजय ग्रोवर
23-09-2014

नाक तो बचाओ

छोटी कहानी


सिरपनखा ने मनमोहनी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘‘राजकुमार, आप तो बड़े हैंडसम हैं, क्या मैं आपको प्रपोज़ कर सकती हूं?’’

‘‘मैं तो ऑलरेडी मैरिड हूं, फिर भी सोचता मगर स्त्री का यूं मुस्कुरा-मुस्कुरा कर प्रपोज़ करने की पहल करना, मेरी समझ में नहीं आया, पहल करना तो मर्दों का काम है, चलो फिर भी तुम आ ही गई हो तो.....उधर लक्समैन खड़ा है, वो भी कम स्मार्ट नहीं है...ट्राइ कर लो....’’

सिरपनखा चल पड़ी लक्समैन की ओर, अपनी मोतियों जैसी मुस्कान बिखेरते हुए.....उसे क्या मालूम कि एक तो लड़की द्वारा पहल, वह भी ऐसी बोल्ड मुस्कान के साथ, वीर मर्द इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते...

वीर लक्समैन ने उठाई तलवार और साफ़ कर दिए सिरपनखा के नाक और कान......

कहते हैं तभी से लड़कियां, ख़ानदानी और सभ्य मर्दो के सामने,  नाक पर हाथ रखकर हंसती हैं......

-संजय ग्रोवर
22-09-2014

(जो लोग रिएलिटी शोज़ ज़्यादा देखते हैं, उन्हें यह बात अच्छी तरह मालूम है....वरना आज दिन-भर चैक कर लेना....)

शनिवार, 13 सितंबर 2014

टॉफ़ियां

छोटी कहानी

जब देखता आ रस रस प्रसाद, वाम चंदर, कानू ग्रेस वगैरह को लड़ते ही देखता। उस दिन भी लड़ ही रहे थे, मगर आज मेरा ध्यान एक ख़ास बात पर चला गया-

‘क्या तेरी मम्मी ने तुझे यही सिखाया है?’
‘क्या तेरी मम्मी ने तुझे यही सिखाया है?’
‘क्या तेरी मम्मी ने तुझे यही सिखाया है?’

तीनों बच्चे एक-दूसरे के कपड़े खींच-खींचकर यह कॉमन सवाल ज़ोर देकर पूछ रहे थे।

मुझे भी उस दिन पता नहीं क्या सूझी,
‘सुनो, तुम्हारी मम्मी का नाम क्या है?’, मैंने पूछ डाला।

‘गीता देवी’, आ रस रस प्रसाद ने कहा।
‘सुश्री गीता‘, वाम चंदर ने बताया।
‘मिसेज़ गीता’, कानू ग्रेस ने बताया।

मैं समझ गया कि बच्चों के टाइमपास को मैंने सीरियसली ले लिया है।

‘ये लो, टॉफ़ी लो, और प्लीज़ यह कपड़ाफ़ाड़ रिहर्सल किसी दूसरे पार्क में किया करो, यहां के लोग भोले हैं, सच्ची घटना समझकर सीरियस हो जाते हैं’, मैंने उन्हें टॉफ़ियां पकड़ाते हुए कहा।

‘रिश्वत दे रहे हो क्या अंकल ?’

‘नहीं नहीं, रिश्वत नहीं है, अवार्ड है।’

‘अच्छा फ़िर ठीक है, मम्मी ने कहा था रिश्वत बिलकुल मत लेना’, टॉफ़ियां छीलते हुए तीनों दूसरे पार्क की ओर चल दिए।

-संजय ग्रोवर
13-09-2014

ब्लॉग आर्काइव