बुधवार, 25 दिसंबर 2013

सादगी और भौंपू

लघुकथा


सादगी ने निर्णय लिया कि वह ख़ुले मैदान में नृत्य करेगी।

भौंपू बजने लगे।

लोगों ने तालियां बजाईं। लोगों का तो आपको मालूम ही है। कभी न कभी आप भी लोग रहे होंगे। हो सकता है अभी भी हों।

लोग जैसे सोचने के लिए कम और श्रद्धा करने के लिए ज़्यादा पैदा हुए हैं।

लेकिन लोगों में कुछ पागल भी होते हैं। एक ने कहा कि इसमें तो दस-बीस गुना ख़र्चा ज़्यादा होगा, पचास गुना भी हो सकता है। सुरक्षा की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। उसमें भी अच्छा-ख़ासा ख़र्चा आएगा। यह तो एक रस्मी नृत्य है, न भी किया जाए तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इससे सिर्फ़ आपकी सादगी का प्रचार होगा। सादगी के प्रचार पर इतना ख़र्च आ जाए तो उसे सादगी क्यों माना जाए.......

पागल अभी बोल ही रहा था कि भोंपू ज़ोर-ज़ोर से बजने लगे। पागल की आवाज़ भोंपुओं के शोर में दब गई.....

भोंपू महंगे थे और तथाकथित सादगी की सोच-समझ को बख़ूबी व्यक्त करते थे। 

-संजय ग्रोवर

26-12-2013

ब्लॉग आर्काइव