गुरुवार, 21 मार्च 2013

आप कुछ बनते क्यों नहीं!


लघुकथा

रेखाकृति: संजय ग्रोवर


‘देखिए, हम चाहते हैं आप कुछ बनें।’
‘बनें!? बनते कैसे हैं, मैं तो जो हूं, ऑलरेडी हूं ही !‘
‘नहीं, नहीं......मतलब हम चाहते हैं आप किसी अच्छी जगह पहुंचें।’
‘अच्छी जगह!? मुझे तो अच्छा आदमी नाली के मुहाने पर बैठा दिखाई दे तो वह जगह अच्छी लगने लगती है। गंदा आदमी कितनी भी बढ़िया कुर्सी पर बैठा हो, मुझे बदबू आती है। आप कहां भेजना चाहते हैं मुझे?’
‘देखिए, आप मज़ाक़ बहुत करते हैं, हम चाहते हैं कि आप कीचड़ में कमल की तरह खिलें, ऊपर उठें।’
‘आप इसे मज़ाक़ समझ रहे हैं! अच्छा! चलिए, बताईए ऊपर उठने के लिए क्या करुं?’
‘आप अपना हाथ हमारे हाथ में दीजिए।’
‘ठीक है, कहां है आपका हाथ?.........दायें.....नहीं है......बाएं....नहीं है.......ऊपर.....वहां भी नहीं है....आप ख़ुद हो कहां!?’
‘कमाल करते हैं आप! इधर नीचे देखिए।’
‘नीचे! ओह! अच्छा...वहां अंधेरे में धुंधला-सा कुछ दिखाई तो दे रहा है....मगर इतना नीचे कैसे पहुंच सकता है मेरा हाथ!? मुझे उठाना है तो आप ख़ुद थोड़ा ऊपर आईए। वरना मैं यहीं ठीक हूं।’


-संजय ग्रोवर 


ब्लॉग आर्काइव