शुक्रवार, 10 मई 2013

ईश्वर सब देख रहा है!




पता नहीं कौन लोग रहें होंगे, कैसे लोग रहे होंगे जिन्होंने ईश्वर को बनाया। और बनाए रखने के लिए तरह-तरह की स्थापनाएं और दलीलें खड़ी कीं। मैं जब कभी इन तर्कों की ज़द में आ जाता हूं, मेरी हालत विचित्र हो जाती है। ईश्वरवालों का कहना है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है, वह सब कुछ देख रहा है। थोड़ी देर को मैं मान लूं कि यह बात सही है तो! होगा क्या ?
मैं बाथरुम में नहा रहा हूं। एकाएक मुझे याद आता है कि बाथरुम में मैं अकेला नहीं हूं, कोई और भी है। कोई मुझे टकटकी लगाकर देख रहा है! और ख़ुद दिख नहीं रहा है। यानि कि बदले में मैं कुछ भी नहीं कर सकता। हे ईश्वर, यह तू क्या कर रहा है!? कई दिन बाद तो साफ़ पानी आया है नलके में और तू ऊपर खूंटी पर चढ़कर बैठ गया! मैनर्स भी कोई चीज़ होती है, कृपानिधान! एक दिन तो ढंग से नहा लेने दे!

आपको याद होगा जब आप अपने एक परिचित के घर पाखाने में विराजमान थे, चटख़नी ख़राब थी, किसीने बिना नोटिस दिए दरवाज़ा खोल दिया और आप पानी-पानी हो गए थे। और इधर तो टॉयलेट में ईश्वर मेरे साथ है! अब क्या करुं! यह सर्वत्रविद्यमान किसी भी ऐंगल से आपको देख सकता है-ऊपर से, नीचे से, दायें से, बायें से...कहीं से भी। मन होता है कि क्यों न पटरी किनारे खेत में चलकर बैठा जाए! अब बचा ही क्या! सारी प्रायवेसी की तो ऐसी की तैसी फेर दी ईश्वर महाराज ने।

यह ग़ज़ब फ़िलॉस्फ़ी है कि ईश्वर सब कुछ देख रहा है और कह कुछ भी नहीं रहा। इससे ही बल मिलता होगा कर्मठ लोगों को। वह आदमी भी तो कर्मठ है जो सिंथेटिक दूध बना रहा है। वह बना रहा है और ईश्वर बनाने दे रहा है। तो सीधी बात है ईश्वर उसके साथ है। तो डरना किससे है फिर !? इसीलिए वह मज़े से होली-दीवाली पर छोटे डब्बेवालों को इंटरव्यू देता है। मुंह पर ढाटा क्यों बांध रखा है इसने!? शायद प्रतीकात्मक शर्म है यह! वरना तो उसे पता ही है कि चैनलवाले और देखने वाले, सभी ईश्वर के माननेवाले हैं। मैं सिंथेटिक दूध बनाता हूं तो ये सिंथेटिक ख़बरें बनाते हैं। सब एक ही ख़ानदान के चिराग़ हैं, एक ही ईश्वर की संतान हैं।
ऐसे कर्मठ लोग भरे पड़े हैं हर धंधे में। ईश्वर उनको देख रहा है मगर कह कुछ भी नहीं रहा! करने का तो फिर सवाल ही कहां आता है!

ईश्वर को यह बात अजीब लगे कि न लगे, मुझे बहुत अजीब लगती है।

-संजय ग्रोवर


13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब लिखा है आप ने..

    जौली अंकल
    www.jollyuncle.com

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  2. itni bakwaas kaise likh lete ho bhai.. ishwar ko chunoti dene ki aur unke bare mein likhne ki tumhari kya kisi ki hasiyat nahin hai

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    1. ईश्वर हैसियत नहीं देखता, उसके लिए सब बराबर हैं। ईश्वर की मर्ज़ी के बग़ैर कुछ नहीं होता। यह बकवास मैंने उसीकी मर्ज़ी से लिखी है।

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  3. बहुत अच्छा लिखा है. ऐसे ही 'कुछ' विचार मेरे मन में भी आते हैं, सोचती हूँ अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार तर्क -वितर्क करती हूँ खुद से और कभी अपने पापा -मम्मी या गुरुजनों, मित्रों से .

    आस्तिकता और नास्तिकता अपने अपने पालन , पोषण व अनुभवों की मिली जुली सोच है, ऐसा मुझे लगता है .

    ईश्वर कौन है , है या नही इसपर कुछ कह पाना निश्चित नहीं क्यूंकि ईश्वर को मैंने भी नही देखा , ठीक उसी तरह जैसे अपने कई युग पहले के पूर्वजों को नही देखा है .

    सुनी तो बहुत है मैंने भी कई बातें जो अविश्वसनीय लगती हैं पर सुनी सुनाई पर यकीं करती नहीं आसानी से बिना तर्क -वितर्क (कुतर्क नहीं जो सिर्फ सामने वाले को /या किसी की सोच , आस्था को नीचा दिखाने के लिए हो ...

    पर ये यकीं से कह सकती हूँ की कुछ ऐसे अनुभव मुझे तो हुए हैं जो इस मस्तिष्क की पकड़ से परे हैं , विज्ञानं के तर्क से परे हैं .

    जिससे ये लगता है की कुछ है जो अज्ञात है. क्यूँ कैसे पता नहीं जैसे की आत्मा soul का अस्तित्व है जिसका वैज्ञानिक भी अनुमोदन करते हैं अपने परिक्षण के बाद.

    जैसे कोई कहते हैं प्रेम होता है, कोई कहता हैं नही होता, तो क्या प्रेम नही होता?

    vaise agar aap nastik hai to ishwar par likhkar to kahin ye jata rhae hain vo hai :)

    aapne hi ye kaha hai -ईश्वर हैसियत नहीं देखता, उसके लिए सब बराबर हैं। ईश्वर की मर्ज़ी के बग़ैर कुछ नहीं होता। यह बकवास मैंने उसीकी मर्ज़ी से लिखी है।

    unke kandho par kyun apne kandho par rakh kar kahiye :) aapki lekhni ko aur bal milega.

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    1. प्रिटीजी, आभार आपका कि आपने सधैर्य इसपर प्रतिक्रिया की।
      कुछ ज़रुरी बातें कहना चाहूंगा।
      पूर्वजों से ईश्वर की तुलना अतार्किक है। हमें मालूम है कि हमारे दादा-नाना इंसान थे और इंसानों को हम सुबह-शाम देखते हैं। ईश्वर का मामला बिलकुल अलग है।
      जो अनुभव मस्तिष्क और विज्ञान की पकड़ से परे हैं उन्हें आप व्यक्तिगत उपलब्धि तो मान सकतीं हैं पर दूसरों पर उन्हें थोपने का आग्रह अनुचित है।

      प्रेम, घृणा, क्रोध....सब मनुष्य के स्वभाव का हिस्सा है पर इनसे ईश्वर की तुलना का कोई अर्थ मेरी समझ में नहीं आता।

      प्रेम, घृणा, क्रोध, भूख, प्यास, सुख, दुख किसी भी बच्चे को सिखाने नहीं पड़ते, वे बिना सिखाए ही उसके भीतर मौजूद होते हैं। जबकि ईश्वर के बारे में बच्चे को आए दिन सुबह-शाम बताना-रटाना पड़ता है। अगर ईश्वर है तो बच्चा भूख-प्यास से पहले ही उसे जान जाएगा, उसे बताना क्यों पड़ता है?
      ईश्वर नहीं हैं दुनिया में मगर उसके नाम का विज्ञापन बहुत है, फिर उसके नाम पर होने वाली बराईयां! वे तो अनगिनत हैं। वे बुराईयां अगर ख़त्म करनी हैं तो नाम तो लेना पड़ेगा। इसमें अगर आपको यह लगता है कि मैं ईश्वर को स्वीकार कर रहा हूं तो मैं यही कहूंगा कि ‘दिलके ख़ुश रखने को प्रिटीजी, यह ख़्याल अच्छा है........’
      और मैं किसीके कंधे पर रखकर कुछ नहीं कह रहा, मैं तो व्यंग्यात्मक अंदाज़ में ईश्वर वालों को यह बता रहूं कि ईश्वर को लेकर जो धारणाएं आपने फ़ैला रखीं हैं, आप ख़ुद ही उनसे मुकर जाते हो!
      आप ध्यान से पढ़ें, आपने, और किसीने भी व्यंग्य में जो कहा गया है उसपर कोई बहस नहीं की, इधर-उधर की बातें की हैं।

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    2. Sanjayji agar aap mera likha dhyan se padhenge to shuruwat mein aapke kathya par hi maine kaha hai... aur jo aapke apne vichar hain uspar behas kyun ho bhala kintu behas hui hai aage to AAPKE lekh se utpann hue bhaav par hi to hui hai.

      ye--बहुत अच्छा लिखा है. ऐसे ही 'कुछ' विचार मेरे मन में भी आते हैं, सोचती हूँ अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार तर्क -वितर्क करती हूँ खुद से और कभी अपने पापा -मम्मी या गुरुजनों, मित्रों से .

      आस्तिकता और नास्तिकता अपने अपने पालन , पोषण व अनुभवों की मिली जुली सोच है, ऐसा मुझे लगता है .

      ईश्वर कौन है , है या नही इसपर कुछ कह पाना निश्चित नहीं क्यूंकि ईश्वर को मैंने भी नही देखा , ठीक उसी तरह जैसे अपने कई युग पहले के पूर्वजों को नही देखा है .

      सुनी तो बहुत है मैंने भी कई बातें जो अविश्वसनीय लगती हैं पर सुनी सुनाई पर यकीं करती नहीं आसानी से बिना तर्क -वितर्क (कुतर्क नहीं जो सिर्फ सामने वाले को /या किसी की सोच , आस्था को नीचा दिखाने के लिए हो ...

      पर ये यकीं से कह सकती हूँ की कुछ ऐसे अनुभव मुझे तो हुए हैं जो इस मस्तिष्क की पकड़ से परे हैं , विज्ञानं के तर्क से परे हैं .

      जिससे ये लगता है की कुछ है जो अज्ञात है. क्यूँ कैसे पता नहीं जैसे की आत्मा soul का अस्तित्व है जिसका वैज्ञानिक भी अनुमोदन करते हैं अपने परिक्षण के बाद.
      maine aapke lekh par apne vichar likhe... ye jaruri nhi ki mai aapki har baat par haan mein haan milaoon.

      aur na aapke liye ya kisi ke liye bhi jaruri hai ki jo mai kahun usse sehmat hon. suryoday hota hai roj kabhi mujhe pyara lagta hai kabhi khinnta lata hai--ye to meri mansikta hai :) suraj to roj ek jaise hi ugta hai...

      jinhe dekha nahi hamare purvaj vo insaan the kaise kahien... hamare purvaj... agar vigyan ki maane to ek 'cell' wale jeev se jeevan ki shuruaat hui...

      vyaktigat anubhav hi aapas mein bataye jate hain to gyan badhta hai varna aaj jo kuchh ham jaante hain sab kuchh hamne parikshan to kiya nahi jaise prithvi gol hai.....

      AB RAHI BAAT US AASTHA KI JO YE MANTI HAI ISHWAR HAI. to avashya sochne wali baat hai jo hota hai vo kyun hota hai.... agar maan lein ishwar hai to ye kaise janenge vo aisa kyun karta hai.... kyunki agar ham aapas mein bhi dekhein to ek hi baat par sabki pratikriya alag hoti hai...jaise AAPKA HI LEKH LEIN ......kisi ne halka si tippani ki kisi ne ise vyaktigat le liya to kisi ne apshabd bhi kahe apni baat ke dusre ke anumodan na karne par....

      koi jo karta hai aisa kyun karta hai ham jaan nhi sakte to us anjaan ki jo hai bhi to kahan, kaisa ke kritya ki kya kahein...

      vaise jo achha bura hota hai to vo kyun bura karta hai ye dard dene wali baat hai par tab vo kisi ko bahut sukh kyun deta hai, iski shikayat ham nhi karte ki hame itna jyada sukh kyun diya....

      sochti mai bhi hun aisa kyun hota hai.... aur mai to aap ki tarah gyani bhi nahi par meri alp buddhi sochti hai ki jaise ma kabhi kabhi chaku se haath katne deti hai ki sabak miley vaise hi kuchh hota hoga... aur is par kuchh bachche sabak lete hain kuchh kai baar chaku se haath katwa lete hain.....

      SHAYAD.....

      mai apne agle pal ki bare mein pratikriya nhi kar sakti to aur kisi ki kya karungi :)


      ye aapne kaha--प्रेम, घृणा, क्रोध, भूख, प्यास, सुख, दुख किसी भी बच्चे को सिखाने नहीं पड़ते, वे बिना सिखाए ही उसके भीतर मौजूद होते हैं। जबकि ईश्वर के बारे में बच्चे को आए दिन सुबह-शाम बताना-रटाना पड़ता है। अगर ईश्वर है तो बच्चा भूख-प्यास से पहले ही उसे जान जाएगा, उसे बताना क्यों पड़ता है?

      utaam baat kahi aapne, aapke ghar mein chhote bachche to honge hi mere 4 bhatije/i hain aur maine dekha hai unhe is sabka ka bhaan hai par fir bhi unhe sikhana padta hai bachche bhuli [hamare yahan chhoti behan]to nahi marte ya kabhi bade ko ki chhote ne mara par use iska abhaas nhi ki tumhe chot pahunchti hai.... ye prem ki baat sikhani padti hai ki apne se chhote ke liye sehansheel bano...

      jab ham kisi ko pasand nhi karte to anjane mein apne krodh ya apshabad dwara bachchon ko sikhate hain --ghrina!

      bachche ko toffee dekhar kehte hain aha--ye sikhana hai sukh ka....

      vaise ye mera alpgyan hai...

      shubh ratri, shubham bhavtu

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    3. प्रिटी जी, यहां सवाल अल्प और वृहद ज्ञान का नहीं है। दुनिया में हर कोई अल्पज्ञानी है। वैसे भी ज्ञान सिर्फ़ सूचनाओं का भंडार है। असल बात यह है कि हम अपनी अक्ल से, दिमाग़ से उसका क्या इस्तेमाल करते हैं। और दिमाग़ इस्तेमाल करने का रिवाज अपने यहां है ही नहीं।
      आप दो साल के बच्चे को थप्पड़ मारिए, देखिए वह डरता है कि नहीं, रोता है कि नहीं। क्या आपने उसे रोना और डरना सिखाया था !? फिर आप उसे गुदगुदाईए, वह खिलखिलाएगा। क्या आपने सिखाया था!?
      इससे भी ऊपर, असली सवाल तो यह है कि भगवान के बारे में बच्चे को बताना और सिखाना कयों पढ़ता है!?

      ईश्वर जिन तर्कों पर चलता है वे निहायत मामूली, हल्के-फ़ुल्के, कई बार हास्यास्पद बल्कि बचकाने होते हैं। उन्हें ज़रा-सा उलट दिया जाए तो वही तर्क ईश्वर के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। ऐसा ही एक तर्क लेकर एक सज्जन मुझसे बात कर रहे थे कि ईश्वर नहीं है तो आदमी मर क्यों जाता है!? मैनें कहा अजीब बात है, मैं पूछता हूं कि आदमी को आखि़र मर ही जाना है तो ईश्वर के होने का मतलब क्या है!? वे थोड़ा हकबकाए। मैं कहता रहा, दुनिया-भर का टाट-कमंडल आदमी इकट्ठा करता है, इस बैंक में खाता, उस बैंक में खाता, सोना-जेवर, साड़ी-कपड़े......किसलिए!? कि एक दिन मर जाए!? और मरता भी बेचारा आसानी से नहीं, पहले खाल ढीली होती है, हड्डियां निकल आतीं हैं, चलना-फिरना बंद हो जाता है, तरह-तरह की बीमारियां लग जातीं हैं, पराश्रित हो जाता है, कई बार बहू-बच्चे दुर्व्यवहार भी करते हैं, कई तो आश्रमों में भी छोड़ आते हैं। और यह सब होता है ईश्वर की देख-रेख में!! ईश्वर की ऐसी क्या दुश्मनी है बुजुर्गों से!? अरे थोड़ा तमीज से भी तो मारा जा सकता है बुजुर्गवार को। ऐसे तड़पा-तड़पा के, सता-सता के मारना !? नहीं! अगर ईश्वर है तो आदमी को मरना नहीं चाहिए। और ऐसे तो बिलकुल भी नहीं मरना चाहिए।

      ऐसे ही एक बार कोई मुझे समझा रहा था कि देखो हर काम कोई न कोई करता है तभी होता है। यह स्कूटर है, आप किक मारोगे तभी चलेगा। इसी तरह के उदाहरण देते हुए बोले कि यह चांद निकलता है, रात होती है, सर्दी-गर्मी आती है.....यह सब अपने-आप कैसे हो सकता है? ज़रुर कोई शक्ति है जो इन्हें चलाती है ; वही ईश्वर है।
      मैंने कहा कि आप पक्का मानते हैं कि हर चीज़ को कोई न कोई चलाता है, बनाता है!
      बिलकुल, वे बोले।
      तो बताईए ईश्वर को कौन चलाता है? उसे किसने बनाया ?

      वे तो सकपका कर चुप हो गए मगर समझदार लोग जानते हैं कि किसने ईश्वर को बनाया और कौन उसे चलाता है।

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  4. ईश्वर आपको भी लिखता देखता रहा, किया कुछ नहीं. नोट करके रख लिया है बस-”सनद रहे और वक्त पर काम आवे’ के नोट के साथ...चिन्ता न करें. :)

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    1. और आप ईश्वर को देखते रहे यह सब करते! ईश्वर से बड़े ईश्वर तो आप हैं ;-)

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  5. जब कोई ज़रिया न हो तो नज़रिया बन जाता है।

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  6. जब कोई ज़रिया न हो तो नज़रिया बन जाता है।

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  7. aastha se pare aapka yeh vishay bahas ka ho sakta hai
    lekin Frans ke ek vidvaan Valtair ne bhee apni mrityu ke samay kaha tha ki agar ishwar hai to yahin hai jabki vo jindagi bhar nastik banaa rahaa.khai mrityu ke baad agar ham lout paaye aur hosh rahaa to shayad kuchh keh paayen.

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    1. दुनिया में जो कुछ होता है(और दुनिया के नाम पर हमने तो अपने देश को ही क़रीब से देखा है), उसे देखकर ईश्वर के होने का कोई प्रयोजन समझ में नहीं आता। और उसके होने का कोई प्रमाण तो कहीं है ही नहीं।

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