शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

बेहतर होता कि ये आत्ममुग्ध होते


व्यंग्य


किसीने सच ही कहा है कि आत्ममुग्धता भी अजीब बीमारी है। आप पांच सौ आत्ममुग्धों को एक साथ बैठा दीजिए, वे ख़ुदको सामाजिक समझने लगेंगे। साथ बैठना आत्ममुग्धों की  मजबूरी है क्योंकि आत्ममुग्धता अकेले में संभव ही नहीं है, उसके लिए दूसरा चाहिए, समाज चाहिए। अकेले में आदमी ख़ुदसे अपनी तारीफ़ करेगा तो थोड़ी ही देर में अहसास होगा कि यार मामला कुछ गड़बड़ है। जब तक दूसरा तारीफ़ न करे अहंकार की खुजली मिटती ही नहीं। धरमा जी बरमा जी से कहते हैं कि तुम बहुत सामाजिक हो और बरमा जी धरमा जी से। तत्पश्चात दोनों मुग्धा नायक मर्दाना ढंग से इठलाते हुए घर को प्रस्थान करते हैं।  

इस सामाजिक आत्ममुग्धता का चरम देखना हो तो हिंदी साहित्य‘कारियों’ से लेकर फ़िल्म‘कारियों’ तक के स्टेटस और ट्वीट्स् ध्यान से पढ़ने में कोई बुराई नहीं है। आधे से ज़्यादा ‘कल मुझे फ़लां संस्था ने सम्मानित किया, मेरे आंसू आ गए’ या ‘कल मैं बाज़ार में जा रहा था कि अचानक एक प्रशंसक मुझसे लिपट गया कि आप तो बहुत बड़े साहित्यकार हैं-बस वहीं मेरा गला भर आया’ से लेकर ‘मैं परसों बनारस जा रही हूं, ढिकां ज्वैलर्स का उद्घाटन करने’ से भरे मिलेंगे। पूछिए इन हरकतों से समाज का क्या लेना-देना !? ऐसे ट्वीट्स् डालने से क्या किसान आत्महत्या बंद कर देंगे !? कि दलित-दहन या आतंकवाद बंद हो जाएगा !? और तो और इधर एक अनशनकारी कह रहा है कि 8 तारीख़ को मैं पक्का मर जाऊंगा और उधर 7 तारीख़ को ये अनशन पर लिखी क़िताब की सोशल मीडिया पर पब्लिसिटी कर रहे हैं। इनका बस चले तो उसकी लाश पर रखकर विमोचन का फीता कटवा लें। आखि़र इतने सारे सामाजिक लोग एक ही जगह पर रोज़-रोज़ थोड़े ही मिलते हैं।

ऐसी ग़ैर-आत्ममुग्धता देखकर सर फोड़ लेने का मन होता है कि इससे बेहतर होता कि ये आत्ममुग्ध होते। काली मिर्चों के धोखे में पपीते के बीज तो न फांकने पड़ते!

-संजय ग्रोवर

2 टिप्‍पणियां:

  1. आत्ममुग्धता का चरम देखना हो तो हिंदी साहित्य‘कारियों’ से लेकर फ़िल्म‘कारियों’ तक के स्टेटस और ट्वीट्स् ध्यान से पढ़ने में कोई बुराई नहीं है ...


    साक्षात सत्‍य प्रभु

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  2. खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो
    कि खमाज थाट का सांध्यकालीन
    राग है, स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है,
    पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी
    किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी
    झलकता है...

    हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.

    .. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि
    चहचाहट से मिलती है...
    Here is my webpage ... खरगोश

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