शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

ईमानदारी और सकारात्मकता

(एक समाज की अंतर्कथा) 
कविता

भ्रष्ट आदमी के घर का कूड़ा
ईमानदार आदमी की नाली से निकलता

ईमानदार आदमी उलझन में रहता
उसे पता ही नहीं चलता कि
चरित्र किसी और का गड़बड़ है
छवि उसकी बिगड़ रही है

भ्रष्ट आदमी के पास भी वक्त नहीं था
इतना भी नहीं कि उसे मालूम हो जाए
वह भ्रष्ट है

ईमानदार आदमी से लोग
या तो डरते
या उसे डराते

कभी-कभी लोग उसके घर के सामने से गुज़रते
यह समझते हुए कि
यहां अब कोई नहीं रहता

सुबह उठने का मन नहीं होता था ईमानदार आदमी का
सकारात्मकता के नाम पर चारों ओर
शिकारात्मकता फ़ैली थी

चौबीसों घण्टे
बेईमानी उस पर नज़र रखती

चारों ओर से बेईमान उसे सुधारने में लगे थे
उनका आत्म विश्वास देखकर
कई बार वह ख़ुदको बेईमान समझ बैठता

सरकारी और अखबारी की तो बात ही छोड़िए
लघुपत्रिका के दफ्तर में घुसने के नाम पर ही
हाथ-पैर कांपने लगते ईमानदार आदमी के


कभी-कभी वह अपने कपड़े फाड़ता और चिल्लाता
कभी-कभी वह इसलिए पागल हो जाता
कि कहीं सचमुच पागल न हो जाए

यह जानते हुए भी कि इससे उसकी
छवि ख़राब होगी

हर बार उसे
छवि और ईमानदारी में से
एक को चुनना होता

जितनी बार भी उसने
ईमानदारी का साथ दिया
हर बार वह
कुछ और ही निकली

ईमानदार आदमी की नज़र
इतनी बारीक़ थी कि
वह ख़ुदको भी झांसा नहीं दे सकता था

ईमानदारी उसके लिए
सांस लेने की तरह थी
कभी-कभी जब वह थक जाता
या कोई लालच
कोई लापरवाही
उसके सर पर सवार हो जाते
तो कुछ कूड़ा उसकी सांस में चला जाता

यही जागरुकता कि
उसकी भी सांस में गंदगी है
पल-पल उसकी सज़ा होती

जितनी बारीक़ थी उसकी नज़र
उतनी ही मुसीबतें बढ़ती थी ख़ुदके लिए

वह आंदोलन में जाने का
दिन और समय तक भूल जाता

ईमानदार आदमी के संघर्ष का गवाह
उसके अलावा कोई भी नहीं होता था

वह जानता था कि जिस दिन संगठन बनाएगा
गिरवी रखनी होगी थोड़ी-सी ईमानदारी


ईमानदार आदमी की ज़िंदगी
एक त्रासदी भी थी और
एक आंदोलन भी

-संजय ग्रोवर

25 टिप्‍पणियां:

  1. अच्‍छी कविता। ईमानदारी की त्रासदी। पागलखाने में इतनी अच्‍छी कविता पोस्‍ट करके आखिर आप कहना क्‍या चाहते हैं।

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  2. वह जानता था कि जिस दिन संगठन बनाएगा
    गिरवी रखनी होगी थोड़ी-सी ईमानदारी


    ईमानदार आदमी की ज़िंदगी
    एक त्रासदी भी थी और
    एक आंदोलन भी
    shandar sir................girvi rakhni hogi imandari....

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  3. pagal log ...normally sach bolte hain....bina soche samjhe..bina kisi laag-lapet ke...:)

    ek sarthak rachna

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  4. क्षमा करें इस कविता की सब से बड़ी कमी यह है कि यह ईमानदार को निराश करती है। ईमानदार व्यक्ति इतना कमजोर नहीं होता। जैसा आप दिखा रहे हैं। वह बहुत मजबूत होता है। ईमानदारी कोई बेकार का गुण नहीं है जैसा यह कविता प्रदर्शित करती है। कुल मिला कर यह बेईमान लोगों की मदद करती है, ईमानदारों की नहीं। ऐसी कविता का महत्व सामाजिक न हो कर असामाजिक हो जाता है। यह यथार्थ भी नहीं है।

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  5. TUM JO BHI LIKHTE HO, LAGTA HAI JAISE MUZH PAR HI GUJARI HAI YA GUJAR RAHI HAI.

    GHAHYAM GUPTA

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  6. द्विवेदी जी, आपकी आलोचना सर-आंखों पर। ईमानदार आदमी कमज़ोर भी हो सकता है और ताक़तवर भी, निर्भर करता है कि उसे पारिवारिक मूल्यों में आदर्शों के साथ साहस भी मिला है या नहीं। दूसरे जब वह वास्तव में बेईमानी से लड़ रहा होता है (एक आम नागरिक की तरह, एक मशहूर ओदोलनकारी की तरह नहीं) तो परिवार और समाज की वास्तविक प्रतिक्रिया क्या होती है। साथ ही, अपनी कमज़ोरी को स्वीकार न कर पाना भी एक कमज़ोरी ही है और उससे कोई ताक़त मिल सकती है, ऐसा मुझे तो नहीं लगता। सबसे ख़तरनाक और तकलीफ़देह तथ्य तो यह है कि हम अपनी रुटीन क़िस्म की बेईमानियों को बेईमानी मानते ही नहीं। ऐसी बेईमानियों में टैक्स न देना, बिजली के मीटर में हेर-फेर या फ़टा नोट चलाने की कोशिश करना, भीड़ या मौका देखकर रुख बदलना जैसी बहुत सी बातें शामिल हैं। इस तरह के ईमानदार भी ख़ुदको ईमानदार और ताक़तवर मानते होते हैं। ताकतवर ईमानदारों के रुप में हमें शेषन या किरन बेदी जैसे अपवादों के नाम याद आते हैं जिन्हें भी हमने बहुत क़रीब से नहीं देखा होता। बाक़ी, जब भी कोई लेखक लिखता है तो अपने अनुभवों और अपने ऑब्ज़र्वेशंस् के आधार पर लिखता है। और मेरे अनुभव भी तस्वीर का एक वह पहलू तो हैं ही जिन्होंने ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ और ‘सौ में से निन्यानवें बेईमान फिर भी...’ को क़रीब से महसूस किया है। तस्वीर का दूसरा पहलू आपके अनुभव हो सकते हैं। यथार्थ अगर निराशाजनक है तो हम झूठ-मूठ ही उसे आशाजनक कहने/मानने लगें, यह भी तो एक बेईमानी है। आगे, फिर वही सवाल आता है कि यथार्थ अगर यह न होता तो इतने बड़े पैमाने पर आंदोलन की ज़रुरत ही क्यों होती !?

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  7. ख़ूबसूरत कविता है, संजय जी! मेरी शुभकामनाएँ । मैं द्विवेदी जी के बात से सहमत हूँ । लेकिन आपकी बात से भी असहमत नहीं हूँ । बस, कहना ये चाहता हूँ कि कवि सिर्फ़ यथास्थिति का बयान नहीं करता । वह जो दुनिया देखना और बनाना चाहता है, उसका भी ज़िक्र कविता में करता है, तभी वह सम्पूर्ण कविता बनती है।
    सादर, अनिल जनविजय

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  8. वो जानता था जिस दिन संगठन बनायेगा
    गिरवीं रखनी होगी थोडी सी ईमानदारी
    सच कहा थोडी क्यों हर संगठन पूरी ईमानदारी ही गिरवीं रख देते हैं जब बात करोंडों तक आ जाये। अच्छी रचना। बधाई।

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  9. बहुत सुन्दर अंतर्कथा है या यूँ कहें अंतर्व्यथा है

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  10. अंतर्कथा है या यूँ कहें अंतर्व्यथा

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  11. " bahut hi shandar " antarkatha "... badhai

    http://eksacchai.blogspot.com

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  12. वह जानता था कि जिस दिन संगठन बनाएगा
    गिरवी रखनी होगी थोड़ी-सी ईमानदारी


    ईमानदार आदमी की ज़िंदगी
    एक त्रासदी भी थी और
    एक आंदोलन भी
    sunder kaita

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  13. बहुत अच्छी कविता और सत्यवचन .वैसे भी आज कल इमानदार को पागल ही कहा जाता है..

    जवाब देंहटाएं
  14. ईमानदारी पर बेईमानी के लाख पहरे हैं , ये सच है कि ईमानदार के दुश्मन हजारों होते हैं , दोस्त कम ...
    जिस देश में नल बिजली टेलीफोन के कनेक्शन के लिए भी रिश्वत देंती पड़ती हो , शत प्रतिशत ईमानदारी मुश्किल ही है ! मगर बची हुई नब्बे प्रतिशत ईमानदारी भी कम नहीं !

    जवाब देंहटाएं
  15. सकारात्मकता के नाम पर चारों ओर
    शिकारात्मकता फ़ैली थी
    ...

    वा...वाह..वाह...क्या बात कही...

    ईमानदार आदमी की ज़िंदगी
    एक त्रासदी भी थी और
    एक आंदोलन भी

    निचोड़ (यथार्थ ) बता दिया आपने...

    प्रभावशाली,सार्थक रचना...

    जवाब देंहटाएं
  16. ब्लॉगर में पिछले एक-दो दिनों में चली गड़बड़ी (मेंटीनेंस) के चलते कुछ कमेंटस् ग़ायब हो गए हैं। मेरे ईमेल में सुरक्षित हैं, लगा दूंगा।

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  17. बहुत अच्छी कविता और सत्यवचन .वैसे भी आज कल इमानदार को पागल ही कहा जाता है..


    -एस.एम.मासूम

    Wednesday, 11 May, 2011 9:41 PM

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  18. ईमानदारी पर बेईमानी के लाख पहरे हैं , ये सच है कि ईमानदार के दुश्मन हजारों होते हैं , दोस्त कम ...
    जिस देश में नल बिजली टेलीफोन के कनेक्शन के लिए भी रिश्वत देंती पड़ती हो , शत प्रतिशत ईमानदारी मुश्किल ही है ! मगर बची हुई नब्बे प्रतिशत ईमानदारी भी कम नहीं !


    -वाणी गीत

    Thursday, 12 May, 2011 9:56 AM

    जवाब देंहटाएं
  19. सकारात्मकता के नाम पर चारों ओर
    शिकारात्मकता फ़ैली थी
    ...

    वा...वाह..वाह...क्या बात कही...

    ईमानदार आदमी की ज़िंदगी
    एक त्रासदी भी थी और
    एक आंदोलन भी

    निचोड़ (यथार्थ ) बता दिया आपने...

    प्रभावशाली,सार्थक रचना...

    -रंजना

    Thursday, 12 May, 2011 2:00 PM

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