व्यंग्य
हर बार ही होता है कि चारों तरफ़ से मानो आकाशवाणी-सी होने लगती है कि भाईओ, बहिनो, दोस्तो, मित्रों, व्यूअर्स एण्ड फ्रेंड्स्.....मतदान ज़रुर करना, यह आपका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है, मतदान नहीं करेंगे तो आप जागरुक नहीं हैं, आप गद्दार हैं, आपको शिक़ायत करने का हक़ नहीं है। एक आदमी 104 साल का होकर भी मतदान करने आया, एक महिला बीमार थी किसीकी पीठ पर लटककर मतदान करने आई.....और आप हैं कि.......
अरे टीवी वाले भैया, ऐंकर दीदी, ऐसे न लताड़ो कि मतदान न करनेवाला इतना अपराधबोध महसूस करने लगे कि टीवी के नीचे सर देकर आत्महत्या कर ले। हमें क्या मालूम कि मतदान में क्या-क्या जादू है, किस टाइप की मेहनत है ? जब तुम कहते हो कहते हो कि लोग ड्राइंगरुम से बाहर नहीं निकलते तो मुझे लगने लगता है जैसे मतदान करने के लिए रास्ते में दस-पांच पहाड़ चढ़ने पड़ते होंगे, नदी में उतरना पड़ता होगा, मल्लयुद्ध करना पड़ता होगा.....। बुरा न मानना, कई बार मतदान करने गया हूं, सब्ज़ी ख़रीदने जितनी मेहनत भी नहीं लगती।
भैया जी, दीदी जी, अगर कोई सारे टैक्स देता है, सारे बिल ठीक से भरता है, किसीकी ज़मीन नहीं घेरता, लड़की नहीं छेड़ता, दहेज़ नहीं लेता, बलात्कार नहीं करता.....कोई काम नियम और क़ानून के खि़लाफ़ नहीं करता तो वोट न देने भर से वो मरने के क़ाबिल हो जाएगा क्या !? और वोट देना इतना ही महान काम है तो ये ‘राइट टू रिजेक्ट’ वाला आयटम क्यों निकाला है भाई !? अगर कोई घर बैठे ही रिजेक्ट कर सकता है तो वो बेचारा सिर्फ़ आपका कैमरा भरने के लिए अपना काम छोड़कर यह भरती की ड्यूटी करे ?
जितना पढ़ते हो, उसका एकाध प्रतिशत वक़्त सोचने में भी लगाया करो, यार! यूंही डराते रहते हो।
एक आदमी अगर बैंक में फ़ॉर्म 15 जी ठीक से भरके आता है और फिर भी बार-बार उसका टैक्स काट लिया जाता है तो वो सिर्फ़ इसलिए शिक़ायत न करे कि उसने वोट नहीं दिया था!? कोई नागरिक अगर बिजली का बिल पूरी ईमानदारी से भरता है और फ़िर भी उसका बिल ज़्यादा आता है या वोल्टेज़ अप-डाउन होने से आए दिन उसको नुकसान होता हो तो शिकायत करने के लिए उसका बिल भरना काफ़ी नहीं है क्या ? अगर आप वोट देने को आधार बनाएंगे तो कलको आप यह भी कह सकते हैं कि जिस पार्टी को वोट दिया था उसीके पास जाकर शिक़ायत करो। तभी तो यह होता है कि बिल न भरनेवाले भी ‘अपनी पार्टी’ के जीतने से ख़ुश होते हैं। बहुत-से लोगों के ‘पक्ष’ और ‘विचारधारा’ का आधार तो यही बन गया लगता है, ऊपर-ऊपर वे कुछ भी कहें।
किस टाइप के लोग हो तुम यार !?
और जिन्होंने वोट दिया हो वो कुछ भी करें !? टैक्स चुराएं, बिल न दें, दहेज़ लें, आयकनों, सेलेब्रिटियों की उल्टी-सीधी बातों पर हां-हां करें, मूढ़ हिलाएं, अंट-संट कुछ भी करें! वोट देते ही सब सही हो जाएगा !? इधर सेल्फ़ी लगी नहीं कि उधर आदमी महान हुआ नहीं! वो दो मिनट आदमी की 5 साल की ज़िंदग़ी का फ़ैसला करेंगे।
माफ़ करना, हमें ऐसी अतार्किक बातें किसीकी भी समझ में नहीं आतीं। मेरी बात मानो, कपड़े-वपड़े, टाई-स्कीवी पहनना अच्छा है, होंठों को ख़ास ढंग से मुड़न-घुमन देकर उच्चारण करने में भी बुराई नहीं, अच्छा समझ में आता है, पर दिन में पांच मिनट सोचने के लिए भी निकाला करो तो कोई फांसी पर नहीं लटका देगा।
बुरा मत मानना ज़्यादा पक जाता हूं तो कभी-कभी थोड़ा टपक जाता हूं।
-संजय ग्रोवर
08-02-2015
हर बार ही होता है कि चारों तरफ़ से मानो आकाशवाणी-सी होने लगती है कि भाईओ, बहिनो, दोस्तो, मित्रों, व्यूअर्स एण्ड फ्रेंड्स्.....मतदान ज़रुर करना, यह आपका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है, मतदान नहीं करेंगे तो आप जागरुक नहीं हैं, आप गद्दार हैं, आपको शिक़ायत करने का हक़ नहीं है। एक आदमी 104 साल का होकर भी मतदान करने आया, एक महिला बीमार थी किसीकी पीठ पर लटककर मतदान करने आई.....और आप हैं कि.......
अरे टीवी वाले भैया, ऐंकर दीदी, ऐसे न लताड़ो कि मतदान न करनेवाला इतना अपराधबोध महसूस करने लगे कि टीवी के नीचे सर देकर आत्महत्या कर ले। हमें क्या मालूम कि मतदान में क्या-क्या जादू है, किस टाइप की मेहनत है ? जब तुम कहते हो कहते हो कि लोग ड्राइंगरुम से बाहर नहीं निकलते तो मुझे लगने लगता है जैसे मतदान करने के लिए रास्ते में दस-पांच पहाड़ चढ़ने पड़ते होंगे, नदी में उतरना पड़ता होगा, मल्लयुद्ध करना पड़ता होगा.....। बुरा न मानना, कई बार मतदान करने गया हूं, सब्ज़ी ख़रीदने जितनी मेहनत भी नहीं लगती।
भैया जी, दीदी जी, अगर कोई सारे टैक्स देता है, सारे बिल ठीक से भरता है, किसीकी ज़मीन नहीं घेरता, लड़की नहीं छेड़ता, दहेज़ नहीं लेता, बलात्कार नहीं करता.....कोई काम नियम और क़ानून के खि़लाफ़ नहीं करता तो वोट न देने भर से वो मरने के क़ाबिल हो जाएगा क्या !? और वोट देना इतना ही महान काम है तो ये ‘राइट टू रिजेक्ट’ वाला आयटम क्यों निकाला है भाई !? अगर कोई घर बैठे ही रिजेक्ट कर सकता है तो वो बेचारा सिर्फ़ आपका कैमरा भरने के लिए अपना काम छोड़कर यह भरती की ड्यूटी करे ?
जितना पढ़ते हो, उसका एकाध प्रतिशत वक़्त सोचने में भी लगाया करो, यार! यूंही डराते रहते हो।
एक आदमी अगर बैंक में फ़ॉर्म 15 जी ठीक से भरके आता है और फिर भी बार-बार उसका टैक्स काट लिया जाता है तो वो सिर्फ़ इसलिए शिक़ायत न करे कि उसने वोट नहीं दिया था!? कोई नागरिक अगर बिजली का बिल पूरी ईमानदारी से भरता है और फ़िर भी उसका बिल ज़्यादा आता है या वोल्टेज़ अप-डाउन होने से आए दिन उसको नुकसान होता हो तो शिकायत करने के लिए उसका बिल भरना काफ़ी नहीं है क्या ? अगर आप वोट देने को आधार बनाएंगे तो कलको आप यह भी कह सकते हैं कि जिस पार्टी को वोट दिया था उसीके पास जाकर शिक़ायत करो। तभी तो यह होता है कि बिल न भरनेवाले भी ‘अपनी पार्टी’ के जीतने से ख़ुश होते हैं। बहुत-से लोगों के ‘पक्ष’ और ‘विचारधारा’ का आधार तो यही बन गया लगता है, ऊपर-ऊपर वे कुछ भी कहें।
किस टाइप के लोग हो तुम यार !?
और जिन्होंने वोट दिया हो वो कुछ भी करें !? टैक्स चुराएं, बिल न दें, दहेज़ लें, आयकनों, सेलेब्रिटियों की उल्टी-सीधी बातों पर हां-हां करें, मूढ़ हिलाएं, अंट-संट कुछ भी करें! वोट देते ही सब सही हो जाएगा !? इधर सेल्फ़ी लगी नहीं कि उधर आदमी महान हुआ नहीं! वो दो मिनट आदमी की 5 साल की ज़िंदग़ी का फ़ैसला करेंगे।
माफ़ करना, हमें ऐसी अतार्किक बातें किसीकी भी समझ में नहीं आतीं। मेरी बात मानो, कपड़े-वपड़े, टाई-स्कीवी पहनना अच्छा है, होंठों को ख़ास ढंग से मुड़न-घुमन देकर उच्चारण करने में भी बुराई नहीं, अच्छा समझ में आता है, पर दिन में पांच मिनट सोचने के लिए भी निकाला करो तो कोई फांसी पर नहीं लटका देगा।
बुरा मत मानना ज़्यादा पक जाता हूं तो कभी-कभी थोड़ा टपक जाता हूं।
-संजय ग्रोवर
08-02-2015
नोटा के प्रयोग से वंचित मतदाता
जवाब देंहटाएंवीरेन्द्र जैन
भोपाल के नगर निगम चुनाव में मेयर और पार्षद के लिए एक साथ मतदान हो रहा था। जब में अपने वार्ड के पार्षद को चुनने के लिए मतदान करने मतदान केन्द्र पहुँचा तो बताया गया कि पार्षद के लिए मतदान नहीं हो रहा है क्योंकि इस वार्ड से केवल दो ही प्रत्याशियों ने फार्म भरा था पर आखिरी समय में एक प्रत्याशी ने अपना नाम वापिस ले लिया था इसलिए इस वार्ड से इकलौते प्रत्याशी को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया गया। जब मैंने पीठाधीन अधिकारी से अपने नोटा अधिकार के बारे में पूछा तो वह ऐसे हँस दिया जैसे कि मैंने कोई मजाक किया हो। जब मैंने उनसे कहा कि मैं यह अनुरोध गम्भीरता से कर रहा हूं तो उन्होंने इस सम्बन्ध में नियमों से अनभिज्ञता प्रकट की।
पिछले दिनों मध्य प्रदेश के नगरीय निकाय चुनावों में समुचित संख्या में पार्षदों के चुनाव निर्विरोध हुये हैं। जब मैंने वर्षों से नगरीय निकायों के चुनाव लड़ने की तैयारी करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा नाम वापिस ले लेने की खबरों के बाद उनके निकटतम लोगों से बात की थी तो कहानी ही दूसरी समझ में आयी थी। उन्होंने बताया कि नगरीय निकाय चुनावों में भाग लेने वाले अस्सी प्रतिशत से अधिक प्रत्याशी केवल कमाई करने और भविष्य में बड़े चुनाव की भूमि तैयार करने के लिए ही सक्रिय होते हैं। इस कमाई की प्रत्याशा में लागत भी लगानी पड़ती है और न जीत पाने की दशा में वह लागत डूब जाती है या कहें कि व्यापारिक घाटा हो जाता है। इस घाटे का लाभ पैसे लेकर वोट देने वाले मतदाताओं को मिलता है। चुना गया व्यक्ति न केवल अपनी लागत ही वसूलता है अपितु अगले चुनाव में बड़ी लागत लगाने और सम्भावित घाटे की पूर्ति के अनुसार कमाई करता है। यही कारण है कि लगभग सभी स्थानों के नगर निकाय अपने तयशुदा कार्यों की जगह छुटभैये नेताओं के व्यापार केन्द्रों में बदल चुके हैं और कमजोर वर्गों की सफाई, स्वास्थ व शिक्षा सुविधाओं को इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। इसी कारण से प्रधानमंत्री की सफाई की अपील खोखली ही नजर आने वाली है। इस बार अनेक स्थानों पर विभिन्न दलों के प्रत्याशियों ने ठेकेदारों की तरह पूल बना लिया था और न केवल दोनों ही लागत लगाने से बच गये अपितु प्रत्याशित कमाई का हिस्सा दूसरे कमजोर प्रत्याशी को देकर उससे नाम वापिस करवा दिया गया और निर्विरोध निर्वाचित हो गये। पंचायतों के चुनावों में भी दर्ज़नों स्थानों पर मन्दिर बनवाने के नाम पर एक मुश्त राशि देकर निर्विरोध निर्वाचन के समाचार छाये रहे हैं। स्मरणीय है कि लोकसभा क्षेत्र भिंड-दतिया और नोएडा में भी काँग्रेस प्रत्याशियों का ठीक चुनाव के मध्य हृदय परिवर्तित होते देखा गया था और ऐसे परिवर्तनों ने एक ही पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाने में बहुत योगदान दिया था।
यद्यपि मैं प्रयास के बाद भी स्वयं नियम तो नहीं तलाश सका किंतु राज्य निर्वाचन आयोग के एक अधिकारी ने फोन पर बताया कि नोटा का अधिकार केवल सविरोध निर्वाचन की स्थिति में ही है और इकलौता प्रत्याशी होने की दशा में निर्विरोध निर्वाचित घोषित किया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि नियमानुसार अगर नोटा के वोट सबसे अधिक भी हों तो भी विजयी दूसरे नम्बर पर वोट लाने वाले को ही घोषित किया जायेगा।
ऐसा नियम मतदाताओं को नोटा का अधिकार देने के उद्देश्य को नुकसान पहुँचा रहा है। जिस क्षेत्र से कोई प्रतिनिधि निर्विरोध निर्वाचित घोषित किया जाता है तो उसका मतलब यह प्रकट होता है कि उस व्यक्ति या उस पार्टी का कोई विरोध वहाँ नहीं है जबकि यथार्थ में स्थिति यह होती है कि यह चुनावी प्रबन्धन का कमाल होता है। देखा गया है कि ऐसे निर्विरोध निर्वाचन हमेशा ही सत्तारूढ राजनीतिक दल के पक्ष में ही होते हैं। भय या लालच के सहारे अगर किसी को सत्तारूढ दल के प्रत्याशी के खिलाफ उम्मीदवार बनने से रोक दिया जाता है तो नोटा के वोट उस ज्यादती के संकेत दे सकते हैं। नोटा के वोट क्षेत्र में लोकतंत्र के प्रति सचेत और सक्रिय किंतु विकल्पहीनता भोग रहे मतदाताओं का पता भी देते हैं। गत लोकसभा चुनाव में पहली बार नोटा का विकल्प दिया गया था और इस के पक्ष में साठ लाख से अधिक वोट पड़े थे। छह राष्ट्रीय दल व 64 राज्यस्तरीय दलों के बीच इसका क्रम अठारहवां था।
मैंने भी नोटा का अधिकार पाने के लिए अपने स्तर पर योगदान किया था किंतु आज नोटा का अधिकार होते हुए भी मुझे अपने मतको व्यक्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया है।
वीरेन्द्र जैन
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629