जाली सर्टिफ़िकेट देने का सबसे ज़्यादा चलन साहित्य में रहा है। ये सर्टीफ़िकेट और इन्हें जारी करनेवाली संस्थाएं अमूर्त्त क़िस्म की होतीं हैं। इन अमूर्त्त सर्टीफ़िकेटों को ‘आर्शीवाद’, ‘हौसला-अफ़ज़ाई’, ‘पुरस्कार’, ‘समीक्षा’, ‘प्रोत्साहन’ जैसे नामों के तहत जारी किया जाता है।
इसकी मूलप्रेरणा सर्टीफ़िकेटजारीकर्त्ताओं को ‘अपना आदमी’, ‘ख़्याल रखनेवाला आदमी’, ‘सहयोग करनेवाला आदमी’, ‘अपनी बिरादरी का आदमी’, ‘अपने जैसा आदमी’, ‘मिलते-जुलते रहने वाला आदमी‘, ‘सबसे पटाके रखनेवाला आदमी’, ‘इस हाथ ले, उस हाथ दे वाला आदमी’ जैसे साहित्य के मूलतत्वों से मिलती है। भारतीय साहित्य बाज़ार में इन अमूर्त्त संस्थाओं की ढेरों दुकानें अलग-अलग नामों से चलतीं रहीं हैं।
इसकी मूलप्रेरणा सर्टीफ़िकेटजारीकर्त्ताओं को ‘अपना आदमी’, ‘ख़्याल रखनेवाला आदमी’, ‘सहयोग करनेवाला आदमी’, ‘अपनी बिरादरी का आदमी’, ‘अपने जैसा आदमी’, ‘मिलते-जुलते रहने वाला आदमी‘, ‘सबसे पटाके रखनेवाला आदमी’, ‘इस हाथ ले, उस हाथ दे वाला आदमी’ जैसे साहित्य के मूलतत्वों से मिलती है। भारतीय साहित्य बाज़ार में इन अमूर्त्त संस्थाओं की ढेरों दुकानें अलग-अलग नामों से चलतीं रहीं हैं।
आजकल ये पूरे प्राणपण से फ़ेसबुक पर अपना बाज़ार जमाने की कोशिश में जुटीं हैं। इनकी प्रकट विनम्रता देखकर लगता है कि आप अगर सहयोग करें तो साहित्य की ये चलती-फ़िरती यूनिवर्सिटियां होम डिलीवरी की सेवा भी प्रदान करतीं होंगीं।
इनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि आप चाहें न चाहें, पर ये ज़बरदस्ती आ-आकर आपको सर्टीफ़िकेट देतीं हैं। आप कहतें रहें कि भई आप कौन!? हमारी सर्टीफ़िकेट में दिलचस्पी ही नहीं है, मगर ये नहीं मानतीं। इनके संस्कार बड़े तगड़े हैं। ये नाराज़ हो जातीं हैं। ये कहतीं हैं कि अगर हमसे सर्टीफ़िकेट न लोगे तो हम प्रचारित करेंगे कि तुम सर्टीफ़िकेट के लायक ही नहीं हो।
इनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि आप चाहें न चाहें, पर ये ज़बरदस्ती आ-आकर आपको सर्टीफ़िकेट देतीं हैं। आप कहतें रहें कि भई आप कौन!? हमारी सर्टीफ़िकेट में दिलचस्पी ही नहीं है, मगर ये नहीं मानतीं। इनके संस्कार बड़े तगड़े हैं। ये नाराज़ हो जातीं हैं। ये कहतीं हैं कि अगर हमसे सर्टीफ़िकेट न लोगे तो हम प्रचारित करेंगे कि तुम सर्टीफ़िकेट के लायक ही नहीं हो।
अभी पीछे एक-दो पागलों ने बोल दिया कि यूनिवर्सिटी जी, हम वाक़ई लायक नहीं हैं, बल्कि लायक होने में हमें शर्म आने लगी है, और आप जिस लायक हो वो आप कर ही रही हो, फ़िर इतनी परेशान क्यों हो ?
ऐसा सुनकर यूनिवर्सिटी और परेशान हो गई, परेशान होकर अपने संस्थापक के पास पहुंच गई कि गुरुजी, पागल तो ऐसा-ऐसा बोल रहा है, अब क्या जवाब देना है ?
अब देखो, लौटकर आती है तो क्या कहती है, यूनिवर्सिटी ?
वैसे न ही आए तो अच्छा है।
वरना पढ़े-लिखे अनपढ़ो की तरह पागल भी पढ़े-लिखे पागलों में तब्दील न हो जाएं।
-संजय ग्रोवर
11-06-2015
बन्दर बाँट ..
जवाब देंहटाएंबहुत सही...
साहित्य का सबसे अच्छा मुल्यांकन करने वाले उसके पाठक और आलोचक होते हैं न कि प्रमाण-पत्र प्रदान करने वाले लोग या संस्थाएँ| आपने सही मुँहफट बात लिखी है|
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