व्यंग्य
कुत्ता मुझे मिल गया, मैं रोटी डालने ही वाला था कि एक आदमी बीच में टपका, ‘‘आप कुत्ते को रोटी नहीं डाल सकते’’
‘‘क्यों !?’’ हैरानी में मैंने पूछा।
‘‘कुत्ते हमारे हैं, हमसे पूछे बिना आप किसी तरह का संबंध आप इनसे नहीं रख सकते......’’
‘‘कुत्ते तुम्हारे हैं! वह कैसे ?’’ मुंह मेरा पहले ही हैरानी से ख़ुल गया था, उसी ख़ुले मुंह से मैंने पूछा।
वह थोड़ा सकपकाया, ‘‘तुम्हें नहीं मालूम ? यह क़िताब पढ़ो, इसमें लिखा है कुत्ते हमारे हैं...’’
‘‘अजीब बात है! मैं एक क़िताब लिख लाता हूं जिसमें लिखा होगा दुनिया के सारे जानवर मेरे हैं, तो तुम मान लोगे क्या ?‘‘ मैंने पूछा।
‘‘यह क़िताब आदमी की लिखी नहीं है, ऐसी-वैसी क़िताब नहीं है यह, समझे!’’
‘‘मैंने तो आदमी के सिवाय किसीको लिखते देखा नहीं, यह क्या कुत्ते ने लिखी है!?’’
‘‘कुत्ता कैसे लिखेगा? तुम बेवक़ूफ़ हो क्या ?’’
‘‘तो ठीक है कुत्ते से पूछ लेते हैं कि वह किसका है?’’
‘‘फिर वही बेवक़ूफ़ी की बात! कुत्ता कैसे बताएगा ?’’
‘‘फिर कैसे पता लगे कि कुत्ता तुम्हारा है, इसका कहीं रजिस्ट्रेशन वगैरह होता है क्या? तुम मुझे वहीं ले चलो, मैंने और भी कई चीज़ें पता लगानी हैं, कोई कहता है बकरी मेरी है, कोई कहता है सांड मेरा है, कोई कहता है सांप मेरा है, कोई कहता है नारंगी रंग मेरा है, कोई कहता है लाल रंग मेरा है, कोई सफ़ेद, कोई नीले, कोई पीले, कोई हरे को अपना बताता है! यह रंगों, जानवरों, शब्दों की मालक़ियत तय कैसे होती है, कहां होती है!? तुम प्लीज़ मुझे वहीं ले चलो।’’
‘‘तुम पागल हो क्या ?’’
‘‘मैं क्यों पागल हूं, मैं तो कुत्ते को बिना भेदभाव के रोटी दे रहा था, तुम्हीने आकर लफ़ड़ा खड़ा कर दिया कि कुत्ता मेरा है! अब बता नहीं पा रहे कि तुम्हारा कैसे है ? अगर तुम्हारा है तो तुम्हारे घर में क्यों नहीं रहता ? तुम्हारे सारे फ़ैमिली-मेम्बर्स इसी तरह सड़कों पर घूमते हैं क्या ? तुम्हारा कैसे है, इसकी तो शक़्ल भी तुमसे नहीं मिलती, तुम्हारी तरफ़ तो देख भी नहीं रहा, यह तो रोटी में इंट्रेस्टेड है, कहो तो तुम्हारा और इसका डीएनए टेस्ट करा लें, ख़र्चा मैं कर दूंगा ?’’
‘‘तुम कहां से आए हो? कैसी बातें करते हो?’’
‘‘मैं तो बात ही कब कर रहा था, तुमने ख़ामख़्वाह टांग घुसेड़ी इसलिए करनी पड़ रही है। तुम हटो मेरे और कुत्ते के बीच में से, जाकर अपनी क़िताबें पढ़ो और क़िताब में घुसकर जानवरों पर हक़ जमाओे, रंगों पर क़ब्ज़ा करों, शब्दों की बंदरबांट करो। तुम यही कर सकते हो, यही करो, जाओ।’’
-संजय ग्रोवर
26-05-2015
कुत्ता मुझे मिल गया, मैं रोटी डालने ही वाला था कि एक आदमी बीच में टपका, ‘‘आप कुत्ते को रोटी नहीं डाल सकते’’
‘‘क्यों !?’’ हैरानी में मैंने पूछा।
‘‘कुत्ते हमारे हैं, हमसे पूछे बिना आप किसी तरह का संबंध आप इनसे नहीं रख सकते......’’
‘‘कुत्ते तुम्हारे हैं! वह कैसे ?’’ मुंह मेरा पहले ही हैरानी से ख़ुल गया था, उसी ख़ुले मुंह से मैंने पूछा।
वह थोड़ा सकपकाया, ‘‘तुम्हें नहीं मालूम ? यह क़िताब पढ़ो, इसमें लिखा है कुत्ते हमारे हैं...’’
‘‘अजीब बात है! मैं एक क़िताब लिख लाता हूं जिसमें लिखा होगा दुनिया के सारे जानवर मेरे हैं, तो तुम मान लोगे क्या ?‘‘ मैंने पूछा।
‘‘यह क़िताब आदमी की लिखी नहीं है, ऐसी-वैसी क़िताब नहीं है यह, समझे!’’
‘‘मैंने तो आदमी के सिवाय किसीको लिखते देखा नहीं, यह क्या कुत्ते ने लिखी है!?’’
‘‘कुत्ता कैसे लिखेगा? तुम बेवक़ूफ़ हो क्या ?’’
‘‘तो ठीक है कुत्ते से पूछ लेते हैं कि वह किसका है?’’
‘‘फिर वही बेवक़ूफ़ी की बात! कुत्ता कैसे बताएगा ?’’
‘‘फिर कैसे पता लगे कि कुत्ता तुम्हारा है, इसका कहीं रजिस्ट्रेशन वगैरह होता है क्या? तुम मुझे वहीं ले चलो, मैंने और भी कई चीज़ें पता लगानी हैं, कोई कहता है बकरी मेरी है, कोई कहता है सांड मेरा है, कोई कहता है सांप मेरा है, कोई कहता है नारंगी रंग मेरा है, कोई कहता है लाल रंग मेरा है, कोई सफ़ेद, कोई नीले, कोई पीले, कोई हरे को अपना बताता है! यह रंगों, जानवरों, शब्दों की मालक़ियत तय कैसे होती है, कहां होती है!? तुम प्लीज़ मुझे वहीं ले चलो।’’
‘‘तुम पागल हो क्या ?’’
‘‘मैं क्यों पागल हूं, मैं तो कुत्ते को बिना भेदभाव के रोटी दे रहा था, तुम्हीने आकर लफ़ड़ा खड़ा कर दिया कि कुत्ता मेरा है! अब बता नहीं पा रहे कि तुम्हारा कैसे है ? अगर तुम्हारा है तो तुम्हारे घर में क्यों नहीं रहता ? तुम्हारे सारे फ़ैमिली-मेम्बर्स इसी तरह सड़कों पर घूमते हैं क्या ? तुम्हारा कैसे है, इसकी तो शक़्ल भी तुमसे नहीं मिलती, तुम्हारी तरफ़ तो देख भी नहीं रहा, यह तो रोटी में इंट्रेस्टेड है, कहो तो तुम्हारा और इसका डीएनए टेस्ट करा लें, ख़र्चा मैं कर दूंगा ?’’
‘‘तुम कहां से आए हो? कैसी बातें करते हो?’’
‘‘मैं तो बात ही कब कर रहा था, तुमने ख़ामख़्वाह टांग घुसेड़ी इसलिए करनी पड़ रही है। तुम हटो मेरे और कुत्ते के बीच में से, जाकर अपनी क़िताबें पढ़ो और क़िताब में घुसकर जानवरों पर हक़ जमाओे, रंगों पर क़ब्ज़ा करों, शब्दों की बंदरबांट करो। तुम यही कर सकते हो, यही करो, जाओ।’’
-संजय ग्रोवर
26-05-2015
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