शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

हवा में कलंडर

व्यंग्य

मुझे कलंडर टाइप के ‘विचारक’ काफ़ी पसंद आते हैं।

वे वॉल पर लटके-लटके बताते हैं कि आज किसकी पुण्यतिथि है, आज किसका जन्मदिन है, किसकी आज शादी हुई थी, पिछले साल इसी दिन किसके यहां कीर्तन हुआ था, किसने किस दिन तौलिया ख़रीदा था, किसने कितने बजे ऑमलेट खाया था, किस पेड़ के नीचे अंडे दिए थे। ये बड़े दिलचस्प  लोग होते हैं, भगतसिंह का जन्मदिन हो तो उन्हींके एक लेख में से चार लाइनें उठाकर कोट कर देते हैं। जैसे आप किसीके जन्मदिन पर उसीकी जेब काटकर गिफ़्ट ख़रीदें, और उसको ऐसे भाव से भेंट करें जैसे अपनी कमाई से ख़रीदकर लाएं हों।

इनमें से कईयों को प्रगतिशील कहाने का बड़ा शौक़ रहता है। ऐसे में उक्त अदा बहुत काम आती है। किसी प्रगतिशील विचारक के विचार उठाकर, अपने नाम से, बड़ी अदा के साथ उसीके मुंह पर मारे जा सकते हैं, बिलकुल ऐसे जैसे मानों ख़ुद प्रगतिशील हों और ख़ुद ही चिंतन किया हो। कई बार इन्हें यह तक ध्यान नहीं रहता कि दो दिन पहले इन्हीं विचारों का ‘ख़ुलकर’ विरोध किया था। यह बहुत आसान हो जाता है जब आपके पीछे कई-कई जातियों, दलों, गुटों, धर्मों की भेड़ें तालियां बजाने को तत्पर और तैनात हों। यह अलग बात है कि बिना परंपरा के ये प्रगतिशीलता की बात तक करने में अक्षम होते हैं। जिस दिन प्रगतिशीलता की खुजली ज़्यादा उठे, ये पहले जाकर अपनी क़िताब खोलकर ढूंढते हैं कि हमारी परंपरा में प्रगतिशीलता है या नहीं। सोचने की बात यह है कि इनकी परंपरा में प्रगतिशीलता का शौक़ीन जो पहला आदमी रहा होगा उसने कौन-सी परंपरा में से ढूंढकर प्रगतिशीलता निकाली होगी।

शौक़ीन प्रगतिशीलता हमेशा किसी नक़ली और कमज़ोर कट्टरपंथ की तलाश करती है, क्योंकि उसीकी तुलना में इसकी प्रगतिशीलता संभव हो पाती है। इनकी प्रगतिशीलता का आधार यह होता है कि ‘देख तू सात मंदिरों में गया, मैं छै में गया इसलिए मैं प्रगतिशील हूं। तू देसी लेखकों को चुराता है, मैं विदेशी को चुराता हूं इसलिए मैं प्रगतिशील हूं। अगर देसी को चुराता भी हूं तो उसीपर ऐसा हमला करता हूं जैसे मैं कोई बहुत बहादुर आदमी हूं। दरअसल तो तू भी जानता है कि जिनकी वजह से यहां कट्टरपंथ जड़े जमाए बैठा है, उनका हाथ मुझपर न होता तो नक़ली प्रगतिशीलता साधने में भी मेरा पाजामा ढीला हो जाता है।’

अपने यहां काम का बड़ा महत्व है। क्या पता कब किससे काम पड़ जाए, किसका ‘आर्शीवाद’ काम आ जाए। क्या पता कलको तौलिया ही बड़ा(!) आदमी(!) बन जाए! बुढ़ापे में काम आएगा कि नहीं। वैसे भी धर्म, वाद और धाराएं ज़्यादातर को तो बचपन में ही बूढा बना देतीं हैं। बचे-ख़ुचों का काम तथाकथित जवानी में कर डालतीं हैं।
वैसे भी अपने यहां मरे हुओं की आलोचना बुरी बात मानी जाती है। यहां प्रसिद्ध लोगों की बुराई भी हर कोई नहीं करता। प्रसिद्ध लोग बड़़े लोग भी तो होते हैं। इनका लठैत बनने का अपना एक सुख है। ऐसा लगता है जैसे सचमुच कोई क्रांति हो रही हो। क्रांति की भ्रांति में न जाने कितनों का जीवन सार्थक हो गया वरना तो कैसा सूना-सूना सा लगता था।

बहरहाल, फ़ोटोकॉपी मशीनों की धड़ाधड़ प्रगतिशीलता में कलंडरों की आमद जारी है। आप भी कोई दुकान चुन सकते हैं जिसपर लगा साइन बोर्ड प्रगतिशीलता का भ्रम देता हो। फिर आपको प्रगतिशीलता पर विचार तक करने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। आप जो भी करेंगे वही प्रगतिशीलता माना जाएगा। यहां तक कि जिसे आप ही फ़ासीवाद कह रहे होंगे उसीसे टॉफ़ी ले लेके खाते रहेंगे, उसे भी प्रगतिशीलता माना जाएगा।

कोई इसे गुंडाग़र्दी, दादागिरी, मौक़ापरस्ती या तानाशाही कहता है तो कहता रहे। आप सुनिए ही मत, ढीठ बने रहिए। उल्टे उसे डांट दीजिए जो ऐसा नहीं करता।

बेईमानों के ‘स्वर्ग’ में इसीको संघर्ष कहते हैं।


-संजय ग्रोवर

24-04-2015


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