बुधवार, 5 अक्टूबर 2016

इधर भी फ़र्ज़ी उधर भी फ़र्ज़ी

पज़ल

इधर भी फ़र्ज़ी उधर भी फ़र्ज़ी
सिलते-सिलते थक गए दर्ज़ी

नीचे वाला चमचा बोला
ऊपर वाले तेरी मर्ज़ी

बहरे, मोहरे, चेहरे, दोहरे
टोपें-तोपें गरज़ी-वरज़ी

झूठ ही जीता, झूठ ही हारा
‘सच’ बोला यही मेरी मरज़ी

राज़ छुपाना काम है जिनका
उन्हींको दो पाने की अरज़ी

उनका तो नाटक भी दुख है
मेरी तो बांछे भी लरज़ी


-संजय ग्रोवर
05-10-2016

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