रविवार, 16 अक्टूबर 2016

अति-आंदोलित

उपन्यासांश

मेजर के ओंठ गोल हो गए।

केस बहुत उलझा हुआ था। वह एक-एक तस्वीर ध्यान से देख रहा था।

विरोधी ऐसे खड़े थे जैसे होली मिलने आए हों। कई तो वीडियो में भी मुस्करा रहे थे। खाने-पीने का विरोध कोई नहीं कर रहा था। वे ऐसी किसी चीज़ का विरोध कर रहे थे जो वहां कहीं हो ही नहीं रही थी। न किसीके करने के इरादे लग रहे। मेजर सोचने लगा कि जिस चीज़ को लेकर आयोजकों में न कभी कोई रुचि थी, न उत्साह ; एकाएक उसीको करने की इतनी उतावली क्यों पैदा हो गई !? हड़बड़ी में कोई गड़बड़ी पैदा हो गई लग रही थी।

फिर मेजर को पुराने कुछ केस याद आए। उसे ध्यान आया कि संबंधित लोगों की रुचि काम करने में कम और नाम करने, इमेज बनाने, विज्ञापन करने बल्कि इतिहास में जाने में ज़्यादा रहती थी। वे या तो अतीत में घुसे रहते थे या भविष्य में जाने को बेताब रहते थे, वर्तमान में उनकी रुचि बस कहानी-क़िस्से-लीला आदि करके टाइम पास करने से ज़्यादा नहीं थी। कल्पना में बहादुरी करके वे ख़ुदको असलियत में बहादुर मानना और कहना शुरु कर देते थे।


एक तस्वीर में पुरुष ही पुरुष थे, स्त्रियां बस दो-चार थीं। जितने तरह के लोग थे, उससे ज़्यादा तरह के व्यंजन थे। एक तस्वीर में जिन लोगों को विचारक बताया गया था, मजबूर और ग़रीब से लग रहे थे ; जो खाना-पीना कर रहे थे, वे निश्चिंत और संपन्न से लग रहे थे। बाग़ में बैठकर खाते-पीते हुए वे आग की बातें ऐसे कर रहे थे जैसे झाग बना रहे हों।

एकाएक मेजर की सीटी निकल गई। वह सोचने लगा कि आयोजकों ने विरोध किया होगा या विरोधियों ने आयोजित किया होगा !? ‘मिली-जुली संसवृत्ति’ में कुछ भी पता लगाना आसान नहीं था।

केस बहुत उलझा हुआ था। मगर पुराने चश्में हटा लो तो बादल छंट भी सकते थे।

थोड़ी नींद ले लेनी चाहिए, मेजर ने सोचा। कल मनोचिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों के पास भी जाना पड़ सकता है।

क्योंकि लीलाएं अपरंपार थी। कुछ न होते हुए भी आए दिन कुछ घट जाता था।


(आने-जानेवाले उपन्यास से एक लंबांश)

-संजय ग्रोवर
17-10-2016

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