गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

तजुर्बा और तजुर्बेकार

PHOTO by Sanjay Grover



वे अकेले पड़ गए थे।
कोई समाज था जो उन्हें स्वीकार नहीं रहा था।
कोई भीड़ थी जो उनके खि़लाफ़ थी।
कोई समुदाय था जो उन्हें जीने नहीं दे रहा था।
कोई व्यवस्था थी जो उनसे नफ़रत करती थी।
कोई बेईमानी थी जिसने उनके खि़लाफ़ साजिश रची थी।

मैंने बस थोड़ी-सी मदद कर दी थी, इतना भर कि वो सभल जाएं, मुसीबत से निकल जाएं। ज़्यादा की नहीं बस दस-पांच की।

मेरी हैसियत ही क्या थी ? सिर्फ़ इतना कि ‘चलो जो होगा देखा जाएगा’ और मैं अकेले उनके साथ खड़ा हो गया।

और पता है मुसीबत से ज़रा-सा निकलते ही उन्होंने क्या किया ?

वे मुझे उसी भीड़, उसी समाज, उसी समुदाय, उसी व्यवस्था, उसी बेईमानी, उसी माफ़िया से बनाके रखने के फ़ायदे बताने लगे जिनके खि़लाफ़....

जैसे वे कोई नयी बात बता रहे हों...

उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि अगर मैं उसी मानसिकता का प्रतिनिधि होता तो मैं अकेला उनके साथ खड़ा कैसे हो जाता !

अगर मैं उसी बेईमानी को पसंद करता होता तो मैं शुरु से ही बेईमानों के साथ होता, उनके साथ नहीं .....



इतना ज़रुर कहूंगा कि अकेला तो मैं अकसर रहा पर अब अकेलेपन से डर नहीं लगता, अकेलापन अच्छा लगने लगा है। 



-संजय ग्रोवर
15-02-2018

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