‘तपाड़!’ एक थप्पड़ उसने सामने खड़े आदमी को जमाया।
थप्पड़ ज़ोरदार था। वह हिल गया।
‘तड़ाक! तड़ाक!’ बदले मे उसने दो जड़ दिए।
यह भी गिरते-गिरते बचा।
लेकिन संभलते ही इसने तीन और दे मारे।
उधर से चार और पड़े और भीड़ बढ़ने लगी।
‘तपाड़! तपाड़! तपाड़! तपाड़! तपाड़!’
‘तड़ाक! तड़का! तड़ाक! तड़ाक! तड़ाक! तड़ाक!’
भीड़ बढ़ती जा रही थी।
दोनों एक-दूसरे को मारते-मारते बेदम हो गए।
अंततः गिर पड़े।
भीड़ ने माला-वाला पहनाईं, प्रशंसा वगैरह की, नारे लगाए, उनकी 'उच्चता' और 'भव्यता' को सलाम किया। और कल फिर तमाशा देखने की आस में विदा हो गई।
*
दोनों उठे।
‘ज़्यादा तो नहीं लगी ?’ एक ने दूसरे के गालों को सहलाया।
‘नहीं नहीं, इतना तो चलता है।’ दूसरे ने पहले के सर पर हाथ फ़िराया, ‘भीड़ तो अच्छी जमा हो गई यार!’
‘हां, और तारीफ़ भी ख़ूब मिली, लगता है अच्छा चलेगा!’
‘क्यों नहीं चलेगा, चलता ही आया है....’
*
इनमें से एक मंच का जुगाड़ू था दूसरा पत्र-पत्रिकाओं का। दोनों एक ही मानस के पुत्र थे और आजकल सोशल मीडिया पर माहौल अपने अनुकूल बनाने की कोशिश कर रहे थे।
-संजय ग्रोवर
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